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श्रीसार
श्रीपाल ऋषि-आपने सं० १६६४ में दशवकालिक सूत्र बालावबोध की रचना की। श्रीपाल स्थानकवासी सम्प्रदाय के ऋषि थे किन्तु इनके सम्बन्ध में और कुछ नहीं ज्ञात हो सका।
श्रीसार ( पाठक )-आप खरतरगच्छ की क्षेमशाखा के साध रत्नहर्ष के शिष्य और प्रसिद्ध लेखक सहजकीति के गुरुभाई थे। आपके गरुभाई और स्वयं आप भी अच्छे लेखक थे। आपकी निम्नलिखित रचनायें उपलब्ध हैं--गुणस्थान क्रमारोह बालावबोध सं० १६७८, जिनराजसूरि रास सं० १६८१, आनन्द श्रावक संधि सं० १६८४ पुष्करणी; पार्श्वनाथ रास १६८३ जैसलमेर, सतरभेदी पूजा स्तवन १६८२ फलौदी, मोतीकयासिया छंद १६८९ फलौदी, सारबावनी १६८२, जयविजय चौपई १६८३, लोकनालगर्भित स्तवन १६८७, मृगापुत्र चौपई १६७७ बीकानेर, दसश्रावकगीत, गौतमपृच्छा स्तवन उपदेशसत्तरी आदि । आपने प्रसिद्ध बेलि 'कृष्ण-रुक्मिणी री बेलि' पर संस्कृत में टीका लिखी है। आप गद्य और पद्य तथा मरु-गुर्जर और संस्कृत दोनों विधाओं और भाषाशैलियों के कुशल लेखक थे। आनन्दश्रावकसंधि बहुप्रचारित रचना है। जिनराज सूरि रास ऐतिहासिक महत्व की कृति है। यह रचना ऐतिहासिक जैनकाव्य संग्रह में (पृ० १५० से १७१ तक) प्रकाशित है। आणंदसन्धि और उपदेशसत्तरी भी प्रकाशित रचनायें हैं। २ ___ इनमें से कुछ उल्लेखनीय कृतियों का विवरण और उद्धरण आगे प्रस्तुत किया जा रहा है । 'जिनराजसूरि रास' के अनुसार जिनराजसूरि का जन्म बीकानेर में सं० १६४७ वैशाखशुक्ल ७, बुधवार को बोथरावंश के धर्मसी साह की पत्नी धारल दे की कुक्षि से हुआ था। आपका बचपन का नाम खेतसी था। जिनसिंह सूरि की देसना से वैराग्य और सं० १६७० में दीक्षा हुई, नाम राजसिंह रखा गया। बाद में आचार्य जिनचंद सूरि ने बड़ी दीक्षा देकर नाम राजसमुद्र रखा और वाचनाचार्य की पदवी दी। सम्राट् जहांगीर के आमन्त्रण पर आगरा जाते समय जिनसिंह सूरि का रास्ते में मेड़ता में सं० १६७४ में निधन हो
१. जैन गुर्जर कविओ भाग १ पृ० ६०२, भाग ३ पृ० १६०१ (प्रथम
संस्करण) और भाग ३ पृ० ८३ (द्वितीय संस्करण ) २. अगरचन्द नाहटा-परंपरा पृ० ८०-८१
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