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शुभविजय
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शुभचन्द्र- भट्टारक सम्प्रदाय के चार शुभचन्द्रों में एक पद्मनन्दि, दूसरे कमलकीर्ति, तीसरे विजयकीति और चौथे हर्षचन्द्र के शिष्य थे। पहले का समय १५वीं, दूसरे का सोलहवीं, चौथे का १८वीं शती है। तीसरे भट्टारक शुभचन्द्र का अधिक समय १६वीं और थोड़ा समय १७वीं शताब्दी में बीता था। आप सं० १५७३ में भट्टारक बने और सं० १६१३ तक इस पर रहे। इसलिए इनका विवरण १६वीं शती में दे दिया गया है।
शुभविजय-इनकी गुरुपरंपरा और रचनाओं को लेकर कई शंकायें हैं । श्री मो० द० देसाई ने जैन गुर्जर कविओ भाग १ पृ० ५९३ और भाग ३ पृ० १०८६ ८७ (प्रथम संस्करण) में इन्हें तपागच्छीय कल्याणविजय का शिष्य बताया था। इनकी रचना महावीर २७ भव स्तवन में गुरुपरंपरा इस प्रकार दी गई है -
श्री वीरपाट परंपरागत आणंदविमल सूरीसरो, श्रीविजयदान सूरि तास पाटि श्री हीरविजयसूरि गणधरो। श्रीविजयसेन सूरि तास पाटि विजयदेव सूरि हितकरो, श्रीकल्याणविजय उवझाय पंडित श्रीशुभविजय शिष्य जयकरो।
यहीं पर देसाई ने लिखा है कि एक शुभविजय हीरविजय सूरि के शिष्य थे जिन्होंने तर्कभाषा वार्तिक, काव्यकल्पलता मकरंद, स्याद्वादभाषासूत्र आदि ग्रंथ लिखे हैं। ये दोनों एक हो सकते हैं। इनकी दूसरी रचना शंखेश्वर पार्श्वनाथ स्तव (६४ कड़ी) सं० १६८७ से स्पष्ट ये हीरविजय सूरि के शिष्य मालूम पड़ते हैं, यथा
अकबर साह प्रतिबोधीउ रे, तपगछ पूनिम चंद, श्री हीरविजय सूरीसरु रे, सेवइ सुरनर इन्द । तस पदपंकज मधुकर रे, शुभविजय सुखकंद, संकट विकट निवारतो रे, करतो भविकानंद। श्रीविजयसेन सूरि पटधणी रे, श्रीविजयदेव सूरिंद, तस राज्ये स्तवन करूं रे, प्रतिपो जिहां रविचंद । ३
१. हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास खंड १ पृ० ५०५ २. जैन गुर्जर कपिओ भाग १ पृ० ५९४ (प्रथम संस्करण) ३. वही भाग ३ पु० २७५-७६ (द्वितीय संस्करण)
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