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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
'जिहंगीर सा हि राज्ये खरतर जिनराज धर्म साम्राज्ये' इन्हीं जिनराज की परम्परा के शीलचंद्र, जिनप्रभ और रत्नमूर्ति, तत्पश्चात् मेरुसुन्दर > शांतिमंदिर, हर्षप्रिय, हर्षोदय और हर्षसार का सादर स्मरण किया गया है।
गुणस्थान गभित जिनस्तव वालावबोध (सं० १६९२ आषाढ़ शुक्ल ३, सांगानेर, संभवतः यह इनकी अन्तिम गद्य रचना है। यह कृति जिनराजसूरि (शिष्य जिनसिंह सूरि) कृत गुणस्थान गभित जिनस्तव
सं० १६६५ मागसर कृष्ण १० जैसलमेर) पर रचित बालावबोध है।' मूल स्तवन केवल १९ कड़ी का है। उस पर रचित यह पांडित्यपूर्ण बालावबोध विस्तृत है ।
शिवदास (जनेतर)---आपकी रचना 'कामावतीवार्ता' सं० १६७३ में लिखी गई। इसे भजनलाल दलपतराम जोशी ने सं० १९५९ में प्रकाशित किया है। इसमें कनक देश के राजा कामसेन की कन्या कामावती का चरित्र चित्रित है । इसका प्रारम्भ इस प्रकार हुआ है
गणपति चरणकमलनमी, प्रणमी सरसति पाय, कहं चरित कामावती अक्षर आपे माय । कनकदेश कुंकूमनगर कामसेन राजान, सेनानी संख्या नहीं सात सहस परधान । कनकवती घरि भारजी कामावती कन्याय, रूपविचक्षण चातुरी सकलकला गुणराय । सेव करे बहुकामावती, प्रेम सबल मन आणी सती, सासु ससुराना पाय नमे, राय राणी नित पूजी जमे । पनरे वरसे टल्यो वियोग, सर्व ओकण थर्या संयोग, दुख भागी सखेनु जाय, कृपा करी श्री वैकुण्ठराय, ओ कामावती चरित जे गाय, सांभलता सुख पामे काय ।
अन्त
एक मने जा सांभले, पोहचे तेहनी आस, बै करजोड़ी वीनवै सिवो हरी नो दास ।२।।
१. जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० २८३-२८५ (द्वितीय संस्करण) २. वही भाग ३ खण्ड २ पृ० २१५२-५३ (प्रथम संस्करण)
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