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शिवनिधान
ईतलइ शास्वती अशास्वती जे जिन प्रतिमा, नाम ते सर्वदा वांदिवा पूजिवा योग्य जाणिवा ।
इसके अन्त में दिए गये श्लोक से इनकी गुरु परम्परा पर पूरा प्रकाश पड़ता है, यथा
श्रीमत् खरतरगच्छे श्री जिनमाणिक्य सूरि गुरु पट्टे, विजयिनि युगप्रधान श्री जिनचन्द्राभिध सुगुरौ, श्री जिनसिंह मुनीश्वर युवराज्ये हर्ष सारगणि शिष्यः अलिखत स्वस्मृति हेतो, स्तववार्ता शिवनिधान गणि । १ अर्थात् आप खरतरगच्छीय जिनमाणिक्य के शिष्य युग प्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि के शिष्य हर्षसार के शिष्य थे । उस समय जिनसिंह पट्टासीन नहीं हुए थे । इसकी गद्य भाषा में वांछिवा, पूजिबा, जाणिवा आदि क्रिया प्रयोग इसकी प्राचीनता के द्योतक हैं । आप संस्कृत के अच्छे ज्ञाता थे । इन्होंने राजस्थानी की प्रसिद्ध कृति 'कृष्णरुक्मिणी बेलि' पर बालावबोध लिखा है । इसका प्रारम्भ देखिये --
श्री हर्षसार सद्गुरु चरण जुगोयास्ति लच्छ विज्ञान, विदधाति शिवनिधानोऽर्थ वलया बालाबोध कृते ।
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राउ श्री कल्याणमल्ल पुत्र श्री पृथ्वीराज राठडउ, वंशी ग्रंथनी आदइ मंगल निमित्त,
ईष्ट देवतानइ नमस्कार करइ । पहिलउ परमेसरनइ नमस्कार करइ,
वली सरसती वाग्वादिनी नइ विद्या मणी नमस्कार करइ । सद्गुरु विद्यागुरु नइ नमस्कार करइ,
ओ तीनों तपसार तिहुं लोक सुखदायी ।
'लघुसंग्रहणी बालावबोध' १६८० कार्तिक शुक्ल १३, अमरसर | यह रचना जिनराज सूरि के समय लिखी गई । 'जिनराजसूरि धर्मसाम्राज्ये' लघु विधि प्रपा, विधिप्रकाश अथवा बड़ीदीक्षा विधि में २८ विधि-विधानों का विवरण है । कल्पसूत्र बालावबोध (सं० १६८० अमरसर) के अन्त में संस्कृत में रचनाकाल और विस्तृत गुरुपरम्परा दी गई है जिसमें लिखा है
१. जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० २८३- २८४ (द्वितीय संस्करण )
२. वही भाग ३ पृ० ३६७-६८ और भाग ३ खण्ड २ पृ० १५९८-१६००
(प्रथम संस्करण )
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