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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास शालिवाहन - सं० १६९५ में भायावर प्रान्त निवासी कवि शालिवाहन या सालिवाहन ने जिनसेनाचार्य कृत हरिवंशपुराण का आगरा में हरिवंशपुराण नाम से अनुवाद किया। इस कृति में कवि ने हिन्दी को देवगिरा कहकर उसके प्रति अपना आदरभाव व्यक्त किया है इनके पिता का नाम रावत षरगसेन था। ये भट्रारक जगभूषण के शिष्य थे। हरिवंश पुराण की भाषा हिन्दी, विषय पुराण है। इसकी प्रतिलिपि सं० १७९० की लिखी हुई दिगम्बर जैन मन्दिर, बयाना से प्राप्त हुई है। इन्होंने लिखा है
__ जिनसेन पुरानु सुनौ मै नाम, ताकी छाया लै चौपई करी।" अर्थात् यह रचना जिनसेन के हरिवंश पुराण का छायानुवाद है। भाषा अन्य दिगम्बर लेखकों की तरह पुरानी हिन्दी है।
शिवनिधान उपाध्याय—ये खरतरगच्छ के प्रसिद्ध आचार्य जिनचन्द्र सूरि की परंपरा में हर्षसारगणि के शिष्य थे। ये इस शताब्दी के श्रेष्ठ गद्यकारों में थे। इन्होंने भाषा-टीकाओं के साथ ही मौलिक गद्य रचनायें भी की हैं। इनकी कुछ प्रसिद्ध गद्य रचनाओं की सूची प्रस्तुत है। कल्पसूत्र बालावबोध सं० १६८० अमरसर, संग्रहणी बालावबोध १६८० अमरसर; कृष्णरुक्मिणी बेलिटब्बा, योगशास्त्र टब्बा, उपदेशमाला टब्बा, शाश्वत स्तवन बालावबोध सं० १६५२ सांभर, गुणस्थान स्तवन बालावबोध सं० १६९२ सांगानेर, लघुविधिप्रपा, कालिकाचार्य कथा और चौमासी व्याख्यान ।२ इनमें से कुछ रचनाओं का विवरण-उद्धरण दिया जा रहा है।
शाश्वतस्तवन बालाबबोध सं० १६५२ श्रावण कृष्ण ४, सांभर का आदि
प्रसाद गुरुराजस्य हर्षसाराभिधस्य सत
प्राप्तं कुर्वे शास्वतार्हच्चैव्यं संख्या सुवार्तिकं । अन्त ते दिणि देवेन्द्र मुणीन्द्रइ स्तवी हुती,
भाविक जीवनइ सिद्धि सुष आपउ । १. डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल-राजस्थान के जैन शास्त्र भंडारों की ग्रन्थ
सूची ५ वां भाग पृ० ३०३ २. अगरचन्द नाहटा-परंपरा पृ० ८३-८४
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