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शान्तिकुशल
४९१ में हुआ था इसलिए यह रचना सं० सोलह सौ बाईस से पूर्व की ही होगी। इसका प्रारम्भ इस प्रकार हुआ हैआदि--जिणंद नमेवि अ नवतत्व कहउं संखेवि मे,
__ जीव तणा दस पाण अ, पंच इन्द्री पंच प्राण । अन्त - इय नवतत्व विचारतां, अधिकी ऊछी भाखि रे,
बोली हुइ अजाणवइ, ते षामउ संघ साषि रे। तपगच्छ नायक सिद्धगुरु विजयदान गणधार रे,
वेलउ मुनि तसु आणधरी कहइ स्वपर उपगार रे ।' 'वेल उमुनि तसु आणधरी' का पाठान्तर 'चेलू मनसत आण धरइ' भी कहीं-कहीं मिलता है इसके कारण श्री देसाई ने रचनाकर्ता का अपरनाम 'मनसत्य' भी लिखा है किन्तु बाद में शंकाग्रस्त विचार को त्याग दिया। इसलिए बेलामुनि की इस रचना को लेकर किसी शंका की गुंजाइश नहीं है और न मनसत्य नामक अपरनाम की आवश्यकता है।
शान्तिकुशल-तपागच्छ के आचार्य विजयदेव सूरि के शिष्य विनयकुशल आपके गुरु थे। इन्होंने सं० १६६७ में अपनी रचना 'अंजनासतीरास' का लेखन जालोर में प्रारम्भ किया। ६०६ कड़ी की यह कृति जासोला में पूर्ण हुई। इसकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ इस प्रकार हैं--
सरस वयन वर सरसती, तुं जगदम्बा माय, कास्मीरी समरं सदा, षज रणउं वरदाय । वीणा पुस्तक धारणी कमंडलु करि भरिभारि,
हंसगमनि हंसासनि, तुभलई सिरजी किरतार । रचनाकाल--संवत सोल सतसठइ, माहासुदिनी बीजा बखांण रे,
सोवनगिरि भांडिउ, जासोलइ पूरु जाणू रे । गुरुपरम्परा-तपगछनायक गुणनिलउ विजयसेन सूरीसर गाजइ रे,
आचारिज महिमा घणु विजयदेव सूरीपद छाजइ रे।
१. जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० १२४ (द्वितीय संस्करण) और भाग १
पृ० २२५-२६ तथा भाग ३ पृ० ७०३ (प्रथम संस्करण)
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