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विवेकहर्ष
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आपकी द्वितीय रचना 'हीरविजयसूरि निर्वाण स्वाध्याय' जैन ऐतिहासिक गुर्जर काव्य संचय में प्रकाशित है। यह रचना २१ वें क्रम पर
और कुंवरविजय कृत सलोको २० वें क्रम पर तथा जयविजय कृत पुण्यखानि २२ वें क्रम पर एकत्र ही प्रकाशित हैं। हीरविजयसूरि के सम्बन्ध में प्राप्त समस्त विवरण उनके इतिवृत्त के साथ दिए जायेंगे । यहाँ केवल दोनों रचनाओं के उद्धरण उनकी भाषाशैली के नमूने के रूप में प्रस्तुत किए जा रहे हैं।
हीरविजय सूरि ( निर्वाण ) रास की प्रारम्भिक पंक्तियाँ इस प्रकार हैं - इम चिन्ती मनह मझारि अ, पाटण थी करइ विहार मे
गणधार अ राजनगरि पधारिया। शाहजाद उ शाह मुराद अ, हीरनइ वंदइ अति आल्हाद ,
प्रसाद अ, मांगइ हीरजी नी दुआं घणी। अन्त -जयउ जयउ जगगुरु पटधरो श्री हीरविजय गणधारजी,
शाह अकबर दरबार मां जिणि पाम्यो जयजयकार जी। रचनाकाल -बीजापुर वरनयर मां, पाण्डव नयन वरीस जी रे,
हर्ष आनंद विबुध तणो दीसदीइ आसीस,
विवेक हर्ष कहइ सीसजी।' हीरविजय सूरि निर्वाण स्वाध्याय की प्रति सं० १६५६ की प्राप्त है। सं० १६५२ में सूरिजी का निर्वाण हुआ था। इसलिए इन्हीं दो-तीन वर्षों के भीतर किसी समय यह रचना हुई होगी। आदि --सरस वचन द्यउ सरसती, प्रणमी श्री गुरुपाय,
थणस्युजिनशासनघणी, श्री हीरविजय सूरिराय रे । जगगुरु गाइई मान्यउ अकबर शाहि रे,
जस पाटि दीपत उ श्री विजयसेन गछनाह रे । अन्त -इम श्री वीरशासन जग त्रिभासन श्री हीरविजय सूरीसरो,
जस शाहि अकबरदत्त छाजइ विरुद सुन्दर जगगुरो। १. जैन युग, पुस्तक ५ पृ० ४६०-४६४ और जैन गुर्जर कविओ भाग २
पृ० २७९-८० (द्वितीय संस्करण)
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