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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास है। इसमें गुरुपरंपरा के साथ हीरविजय और अकबर की भेंट की भी चर्चा की गई है, यथा
सकल भटारक अनोपम सोहे श्री हीरविजयसूरीराया रे, अकबर ने बोधदइ ने, श्री जिनधर्म पताया रे। तास रे सीस पंडित गुणभरीया चतुरविजय शिष्य सार रे, तास रे सीस अति घणु रुडा, ऋद्धि विजय सुखकार रे । राग धनासी ढाल सतावीस, रिपुमर्दन गुण गाया रे,
विवेक विजय कहे सुणतां सहुने आणंद ऋद्धि सवाया रे ।' इस गुरुपरम्परा की दो कड़ियाँ जो प्रथम भाग में छूट गई थीं उन्हें ही श्री देसाई ने भाग ३ में उद्धत किया है जो दसवीं और बारहवीं के बीच की ११वीं कड़ी है, वह निम्नाङ्कित है
तस तणा शिष्य अछि घणा वारु, शुभविजय कविराया रे,
तस तणा गुणवंत गिरुआ, भावविजय गुरुराया रे। मृगाङ्कलेखारास के लेखक एक दूसरे विवेकविजय १८वीं शती में हुए हैं। उनका विवरण आगे के खण्ड में दिया जायगा।
विवेकहर्ष - तपागच्छीय हर्षाणंद आपके गुरु थे। आपने सं० १६५२ में १०१ कड़ी की एक रचना 'हीरविजय सूरि (निर्वाण) रास' नाम से बीजापुर में लिखी। हीरविजयसूरि इस शताब्दी के एक महान धर्मप्रभावक आचार्य और साहित्यकार थे। उनके कई भक्तों
और शिष्यों ने उनको लक्ष्य करके अनेक रचनायें की हैं जैसे परमानंद कृत हीरविजयसूरि निर्वाण सं० १६५२, कुंअरविजय कृत श्री हीरविजय सूरि सलोको सं० १६५२ के बाद, जयविजय कृत हीरविजय सूरि पुण्यखानि आदि, जिनकी चर्चा यथास्थान की गई है। इन सब कृतियों में हीरविजय सूरि का जीवनवृत्त एवं उनकी सुकृति का यशोगान किया गया है। प्रस्तुत कवि विवेकहर्ष ने सं० १६५२ के कुछ ही बाद 'हीरविजयसूरि निर्वाण स्वाध्याय' लिखा । सं० १६५२ भाद्र ११ को हीरविजय सूरिजी ने ऊन्हा ग्राम में शरीर छोड़ा था। अतः ये सभी रचनायें उसी वर्ष या उसके थोड़े बाद की होंगी। हीरविजय सूरि (निर्वाण) रास जैनयुग पु० ५ पृ० ४६० से ४६४ पर प्रकाशित है और १. जैन गुर्जर कविओ भाग १ पृ० ४९२-९३ और भाग ३ पृ० ९७२ (प्रथम
संस्करण)
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