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विवेक विजय
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विवेकचंद II--आंचलगच्छीय कल्याणसागरसूरि आपके दादा गुरु और गुणचन्द्र आपके गुरु थे। आपने 'सुरपाल रास' (४४६ कड़ी, १९ ढाल) की रचना सं० १६९७ पौष शुक्ल १५ को राधनपुर में की इसका आदि इन पंक्तियों से हुआ है
सरसती सुमति सदा दीओ, मन आणी अति कोडि,
गुण गाऊ गिरुआ तणां, पातिक नाखइ मोडि । रचनाकाल --संवत सोल संताणुइ पोस पुनिम दिनसार रे,
चरित्र अह रचिउ मनरंगे रायधनपुर मझारि रे । गुरुपरम्परा -पण्डित गुणचंद्र वंदता पामीजे उछाह रे,
सुगुरु अह तणे सुपसाये, भाख्यो जे अधिकार रे । विवेकचंद्र कहे भावे सणता लहइ लाभ अपार रे।
सुणी चरित्र दीजे दान जे कीजे अतिथिसंविभाग रे।' इसमें सरपाल राजा के दान की प्रशंसा की गई है जिसके बल पर उसने निर्वाण लाभ किया। रचना का छंद-बंध शिथिल, भाषा सरल, शैली सामान्य है।
यदि प्रथम विवेकचन्द की गुरुपरंपरा का ठीक पता लग जाता तो यह निश्चय करने में सुविधा होती कि ये दोनों दो कवि हैं या एक ही तो नहीं हैं।
विवेकविजय --तपागच्छ के प्रसिद्ध आचार्य हीरविजयसूरि की परंपरा में आप शुभविजय> भावविजय> ऋद्धिविजय> चतुरविजय के शिष्य थे। आपने सं० १६७५ में बड़ावली में 'रिपुमर्दन रास' की रचना की । रचनाकाल कवि ने इस प्रकार बताया है --
संवत चैक सैलादिक रागा, ज्ञानी नाम धरीजे रे,
मास व्यंक अजुआली तिथि सीवा बारभलो भुगु लीजे रे । इसका अर्थ बूझना सचमुच ज्ञानी का काम है। श्री देसाई ने सं० १६७५ के आगे प्रश्नवाचक चिह्न लगाकर अपनी शंका प्रकट कर दी
१. जैन गुर्जर कविओ भाग १ पृ० ५७७ और भाग ३ पृ० (०६६-६८
(प्रथम संस्करण) भाग ३ पृ० ३२०-२१ (द्वितीय संस्करण)
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