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मह - गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास (विक्रम १७वीं शती)
अखयराज उर्फ अक्षयराज श्रीमाल - आप इस शताब्दी के श्रेष्ठ गद्य लेखक हैं । आपने सं० १६७४ में विषापहार स्तोत्र की हिन्दी भाषा टीका लिखी । कल्याणमन्दिरस्तोत्र, भक्तामरस्तोत्र और भूपालचौबीसी पर भी आपने भाषावचनिकायें लिखी हैं । चतुर्दशगुणस्थानवचनिका या चर्चा आप की सर्वश्रेष्ठ गद्य रचना है । इसमें त्रिलोकसार, गोम्मटसार और लब्धिसार के आधार पर चौदह गुणस्थानों सहित अन्य जैन सिद्धान्तों की भी चर्चा की गई है इसलिए इसे 'चर्चा' भी कहा जाता है ।
आपका जीवनवृत्त अज्ञात है किन्तु भाषा प्रयोग के आधार पर लगता है कि आप जयपुर के आसपास के रहने वाले थे । आपकी भाषा का नमूना प्रस्तुत है -
"आगे अन्तराय कर्म पाँच प्रकार, तिसि की दोइ साखा । एक हिचे और एक व्यौहार | निहचै सो कहिये जहाँ पर गुन का त्याग न होइ सो दानान्तराय । आत्मतत्त्व का लाभ न होइ सो लाभान्तराय । आत्मस्वरूप का भोग न होइ सो भोगान्तराय । जहाँ बराबर उपभोग न जागै सो उपभोगान्तराय । अष्टकर्म कहुँ जीव जिसके नहीं सो वीर्यान्तराय |
चौदह गुणस्थान चर्चा की अन्तिम पंक्तियाँ इस प्रकार है
"यह चौदह गुणस्थान का स्वरूप संक्षेप मात्र कह्या । जिनवाणी अनुसार कथन करि पूरन किया। जौ कहीं भूलचूक भई होइ तो जो पंडित जिनबानी में प्रवीन होइ सो सुधारि पढ़ियो । २
१. राजस्थान का जैन साहित्य - पृ० २४७-२४८ (सं० श्री अगरचंद नाहटा डॉ० कस्तूरचंद कासलीवाल आदि) में संकलित लेख - राजस्थानी गद्य साहित्यकार, ले० डॉ० हुकुमचंद भारिल्ल |
२. प्रशस्ति संग्रह पृ० २१२, सं० डा० कस्तूरचंद कासलीवाल |
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