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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
कवियों की भाषा प्रसाद गुण सम्पन्न है | मुहावरों के प्रयोग यत्रतत्र अच्छे ढंग पर मिल जाते हैं जैसे 'उलवा न जाने किस ओर भानु उवा है' । या आजकाल पीजरे सो पंछी उड़ि जातु है । इत्यादि, खलक; बदफैल, खबरदार, निसानी और गुमानी जैसे शब्दों के बढ़ते प्रयोग मुगलकालीन फारसी - उर्दू के बढ़ते प्रभाव के द्योतक हैं । जैन कवियों ने इन शब्दों को ज्यादातर तद्भव रूप में ही प्रयुक्त किया है जैसे मुकाम, सहल, परवाह, नजदीक, खिलाफ आदि । हिन्दी खड़ी बोली और ब्रजभाषा का मिलाजुला रूप काव्य में अधिक प्रयुक्त होने लगा था जिस पर गुजराती या राजस्थानी की छाप देखी जाती है । यह एक विशेष प्रकार की भाषा शैली थी जो जैन कवियों की काव्य भाषा के रूप में रूढ़ हो गई थी । अतः मरुगुर्जर जैन साहित्य १७वीं और १८वीं शती में भी इसी प्रकार की चिराचरित भाषा शैली में अभिव्यक्ति पाता रहा है । भाषाओं के स्वतन्त्र विकास की अलगाववादी प्रवृत्ति इनमें नहीं मिलती अपितु ये हिन्दी, राजस्थानी और गुजराती के मिले-जुले रूप के प्रयोक्ता ही रहे हैं । मरुगुर्जर भाषा शैली भाषायी मेलजोल का एक उत्कृष्ट नमूना है । भाषा के साथ-साथ मरुगुर्जर जैन साहित्य भाव के स्तर पर भी सद्भाव, पारस्परिक समन्वय और शांति का संदेशवाहक है ।
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