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उपोद्घात
२९. का विकास पूर्ण हो चला था फिर भी कविता में जैन कवि राजस्थानी-- गुजराती मिश्रित एक विशेष प्रकार की हिन्दी भाषा शैली का प्रयोग करते रहे। रे' और अनुस्वार की प्रवृत्ति अब भी मिलती है । कुशल. लाभ का निम्नपद्य 'रे' प्रयोग का अच्छा नमूना है -
'आव्यो मास असाढ़ झबूके दामिनी रे । जोवइ जोवइ प्रीयडा सकोमल कामिनी रे। चातक मधुरइ सादिकि प्रीउ प्रीउ उचरइ रे ।
वरसइ घण वरसात सजल सरवर भरइ रे । कुछ कवियों की भाषा शुद्ध खड़ीबोली पर आधारित है जैसे बनारसीदास की भाषा, क्योंकि ये जौनपुर में पैदा हुए और आगरे में रहे जो खड़ीबोली साधु भाषा के प्रभाव क्षेत्र में था। आगरा निवास के कारण कारकों पर ब्रजभाषा का प्रभाव भी अवश्य पड़ा है । दरबारी संसर्ग के कारण उर्दू-फारसी के प्रयोग भी मिलते हैं। इनके मित्र कुंवरपाल की भाषा पर राजस्थानी प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है। क्योंकि उनका सम्बन्ध राजस्थान से रहा । चंकि अधिकतर जैन कवियों का सम्बन्ध राजस्थान या गुजरात से रहा अतः उनकी हिन्दी भाषा पर इन दोनों भाषाओं का मिला-जुला प्रभाव बराबर बना रहना स्वाभाविक था। उदाहरणार्थ कुंवरपाल के 'चौबीस ठाणा' की निम्न पंक्तियाँ देखिये --
'वंदी जिनप्रतिमा दुखहरणी। आरंभ उदौ देख मति भूलौ, ए निज सुध की धरणी बीतरागपदक दरसावइ, मुक्ति पंथ की करणी सम्यग् दिष्टी नितप्रति ध्यावइ, मिथ्यामत की टरणी ॥१
लेखकों ने शासन और 'सासन' तथा 'शुद्ध' और 'सुद्ध' दोनों रूपों में स और श का प्रयोग किया है। संयुक्त वर्णों को स्वर विभक्ति द्वारा पृथक् करने की भी प्रवृत्ति मिलती है जैसे लबधि और लब्धि, अध्यातम
और अध्यात्म, सरधा और श्रद्धा । संयुक्त वर्णों को सरल बनाने के लिए एक वर्ण हटा भी दिया जाता है जैसे स्तुत का स्थुति, चैत्य का चैत, स्थान का थान, ऋद्धि का रिधि और मोक्ष का मोखरूप खबः चलता है। १. बनारसीदास-अर्द्धकथानक पृ० १०२ पर उद्धृत
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