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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इसिहास रूपक -महात्मा आनन्दघन की प्रकृति पर आधारित यह सांगरूपक देखिये--
मेरे घट आन भाव भयो मोर।
चेतन चकवा चेतन चकवी, भागौ विरह को सोर ।' प्रकृति वर्णन--जैन साधु-संतों के आगमन पर प्रकृति का हर्ष प्रकट करने के लिए, मानव की अन्तःप्रकृति का अंकन करने के लिए, प्रकृति के साथ मनुष्य के चिरंतन सम्बन्धों का आख्यान करने के लिए या आलंकारिक रूप में प्रकृति का वर्णन करने के लिए जैन कवियों ने प्रकृति का चित्रण किया है। उद्दीपन विभाव के रूप में भी यदाकदा प्रकृति का वर्णन किया गया है। हेमविजय सूरि ने नेमीश्वर के गिरिनार पर तप करने जाने के बाद राजीमती के हृदय के हाहाकर को 'प्रकृति में प्रत्यक्ष रूप से घटाकर वर्णित किया है, यथा--
घनघोर घटा उनयी जु नई, इतनै उततै चमकी बिजली । पियुरे-पियुरे पपिहा बिललाति जु, मोर किंगार करंति मिली। विच विन्दु परे दृग आँसु झरे, दुनिधार अपार इसी निकली।
मुनि हेम के साहब देखन कू, उग्रसेन लली जु अकेली चली। यह छन्द रीतिकाल के वृभषानलली पर लिखे गये इसी भाव के प्रसिद्ध छन्द की याद दिलाता है।
आलम्बन के रूप में प्रकृति-वर्णन का एक उदाहरण ब्रह्म रायमल्ल की 'हनुवंतकथा' से देकर यह प्रसंग सम्पूर्ण किया जा रहा है--
दिन मत भयो अथयो भाण, पंछी शब्द करै असमान । मित्र सहित पवनजय राय, मन्दिर पर बैठो जाय । देखै पंखी सरोवर तीर, करै शब्द अति गहर गम्भीर । दसै दिशा मुख कालो भयो, चकहा चकही अंतर लयौ ॥३
भाषा का स्वरूप -इस शताब्दी तक हिन्दी, गुजराती और राजस्थानी का स्वतन्त्र विकास होने लगा था। 'उकार' बहल प्रवत्ति हट गई थी और अधिकतर तत्सम शब्दों का प्रयोग होने लगा था। क्रियाओं १. आनन्दघन-पदसंग्रह पद सं० १५ २. डॉ० प्रेमसागर जैन-हिन्दी जैन भक्ति काव्य पृ० ४५२ ३. वही, ४५६
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