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उपोद्घात
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ज्यों सिलमाँहि कमल को बोवन, पवन पकर जिम बाँधिये मूठी ।" ये करतूति होय जिम निष्फल, त्यों बिनभाव क्रिया सब झूठी || "
अलंकार - जैन कवियों ने आग्रहपूर्वक काव्य को अलंकारों के बोझ से क्लिष्ट और चमत्कारी बनाने का प्रयास नहीं किया है किन्तु अनेक अलंकार स्वाभाविक रीति से इनकी रचनाओं में काव्य की शोभा बढ़ाते हुए मिल जाते हैं । उनके दो-चार उदाहरण यहाँ प्रस्तुत हैं । अनुप्रास की छटा बनारसीदास की इन पंक्तियों में देखिये
रेत की सी गढ़ी किधौं मढ़ी है मसान की सी, अन्दर अंधेरी जैसी कन्दरा है सैल की ।
यमक – पीरे होहु सुजान पीरे कारे ह्न रहे ।
पीरे तुम बिन ज्ञान पीरे सुधा सुबुद्धि कहँ ।
अर्थालंकारों में उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, श्लेष का प्रयोग अधिक किया गया है । अनेक कृतियाँ पूर्णतया रूपक पर ही आधारित हैं । इन रूपककातिशयोक्तियों में रूपक का अच्छा निर्वाह किया गया है यथा - जीवमनःकरण संलाप', 'मयण-पराजय' और मयण - जुज्झ आदि ।
कुछ अलंकारों के उदाहरण प्रस्तुत हैं । उपमा 'कब रुचि सौं पीवे दृग चातक, बूंद अखयपद कन की । कब शुभ ध्यान धरै समता गंहि करूँ न ममता तन की ॥ *
विरोधाभास - एक में अनेक है अनेक ही में एक है, सो एक न अनेक कछु कह्यो न परत है ।
महाकवि बनारसीदास ने अभिनव छंद प्रयोग की भाँति कुछ विरल प्रयुक्त अलंकारों का भी प्रयोग किया है यथा आक्षेपालंकार का एक उदाहरण लीजिये
शंख रूप शिव देव, महाशंख बनारसी, दोऊ मिले अनेन, साहिब सेवक एक से ।
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१. डा० प्रेमसागर जैन - जैन भक्तिकाव्य पृ० ४४५ पर उद्धृत २. बनारसीदास -अध्यात्म पद पृ० २३१
३. बनारसीदास —अर्द्धकथानक - सं० नाथूराम प्रेमी पृ० २७
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