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विमल
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विनयसोम-आपके सम्बन्ध में भी कुछ ज्ञात नहीं हो सका। आपकी एक रचना 'पोसीना पार्श्वनाथ स्तवन' (५ कड़ी) सं० १७१२ से पूर्व की लिखी प्राप्त है अतः यह १७वीं शताब्दी में रची गई है। इसका आदि और अन्त दिया जा रहा हैआदि-पोसीना मंडन दुरित खंडण वंदन त्रिभुवनपास,
आसा पूर इ सेवक तणी, नामि लीलविलास ।
मनमोहनपासजी पूजीइह हो। अन्त–तुझ नामि संपति लहीइ, दुरि जाई दंद,
कर जोड़ी विनयसोम उच्चरइ, आपु परमाणंद ।
मनमोहन पासजी पूजाइ हो, पूजइ परमानंद मन ।' रचना में लेखक का नाम है किन्तु अन्य विवरण नहीं है ।
विमल-ये श्रावक थे या साधु, श्वेताम्बर थे या दिगम्बर, यह तो निश्चित नहीं हो पाया है किन्तु ये जैन थे क्योंकि इनकी रचना 'मित्रचाडरास' (३४४ कड़ी सं० १६१०, आसो शुक्ल १०, शुक्रवार) के अन्तिम पद्य में अरिहंत शब्द आया है, यथाअन्त--अरिहंत देव न ध्यान ज धरूं,
सद्गुरु चरण सदा अणसरु, ध्यातां धर्म बहुधन झाझू मिलिइ,
कहि विमल ते घरि सिद्धि मिलइ । रचनाकाल--त्रणसइ च्यालीस ओ चुप्पइ, भणता सुखीइं हुइ सही।
संवत् १६१० तस, आसो शुद आसीइं विस्तरां,
तिथि दसमी नई शुक्रवार, विमल होयो जयजयकार । इसमें गुरुपरंपरा नहीं दी गई है। इसका प्रारम्भ इन पंक्तियों से हुआ है--
मात सरसति मात सरसति प्रणम् अह देवि, कौमारी करुं वंदना वागवांणि दिइ सरस वाणीय । तास जिम लि देवी को नही निपुण बुद्धिमई तूअ जाणीय,
१. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० ३८४ (द्वितीय संस्करण)
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