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मरु - गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
इसके अतिरिक्त आपने सं० १६८९ से लेकर सम्वत् १७३८ के बीच बीसों रचनायें की हैं जिनमें सूर्यपुर चैत्य परिपाटी, पट्टावलि संज्झाय, धर्मनाथस्तवन आदि उल्लेखनीय हैं । 'पट्टावली संज्झाय' में महावीर - भगवान और गौतम गणधर इन्द्रभूति, सुधर्मा, जंबू आदि से लेकर हीरविजयसूरि तक का उल्लेख करके अन्त में अपने गुरु कीर्तिविजय के सम्बन्ध में कवि ने लिखा है
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ओ वीर जिणवर पट्टदीपक मोह जीपक गणधरा, कल्याणकारण दुखनिवारण वरणव्या जगि जयकरा । हीरविजयसूरि सीस सुन्दर कीर्तिविजय उवझायओ, तास सीस इमिनिसदौस भावइ विनय गुरुगुण गाय ओ ।
उपधान स्तवन, धर्मनाथ स्तवन आदि भक्तिपरक स्तुतियाँ हैं । आदिनाथ वीनती आंबिल संज्ज्ञाय, भगवती सूत्र संज्झाय, अध्यात्मगीता आदि लघुकृतियाँ भी स्तुति या अध्यात्म परक रचनायें हैं । इनके प्रतिनिधि रूप में पुण्य प्रकाश नु० स्तवन को दो पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं
सम्वत सत्तरे उगणत्रीस मे रहि रानेर चोमास ओ विजयदसमि विजयकारण कीयो गुण अभ्यास अ ।
१४ गुणस्थानक वीरस्तवन, ६ आवश्यक स्तवन, पंचकारण स्तवन आदि स्तवन भी प्राप्त हैं । उपधान स्तवन में कवि ने बताया है कि गुरु के समीप बैठकर नवकार आदि सूत्रों का शास्त्रोक्त विधि से गुरुमुख द्वारा ग्रहण करना उपधान है । इनकी अधिकांश रचनायें प्रकाशित हैं । धर्मनाथ स्तवन को लघु उपमिति भवप्रपंच स्तवन भी कहा जाता है । इससे स्पष्ट है कि यह रचना उपमिति भवप्रपंच का संक्षेप है ।
विनयविजय और यशोविजय ने सम्मिलित रूप से 'श्रीपालरास' की रचना (सं० १७३८) में की थी । यह महत्वपूर्ण रचना है । इस रास में दिखाया गया है कि सिद्धचक्र अर्थात् अर्हतु, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, दर्शन, ज्ञान, चारित्र, और तप इन नव पदों के सेवन से श्रीपाल राजा ने महान सफलता प्राप्त की थी। इसकी ७५० गाथा तक विनयविजय ने रानेर में रचना की थी । सं० १७३८ में उनके - स्वर्गवासी हो जाने पर बाकी भाग को उनके प्रिय सहाध्यायी श्रीयशो
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