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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
मरुगुर्जर में आपने नेमिनाथ भ्रमर गीता, नेमिनाथ वारमास, आदिनाथविनती, चौबीसी, बीसी, नेमिजिनभाव आदि रचनाओं का प्रणयन किया है । काशी में रहने के कारण इनकी काव्य भाषा पर हिन्दी का प्रभाव स्वाभाविक रूप से पड़ा है । इनके प्रकाशित ग्रन्थ विनयविलास में ३७ पद हिन्दी के हैं । पहले उसी का परिचय प्रस्तुत है । विनयविलास - इसमें लेखक ने बताया है 'आत्मा कभी नहीं मरता । उसे मिथ्या शरीर से प्रेम नहीं करना चाहिए। जीव- सवार और शरीर - घोड़ा के रूपक से इसी भाव को निम्न पंक्तियों में व्यक्त किया है
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घोरा झूठा है रे तू मत भूले असवारा ।
तोहि मुधा ये लागत प्यारा, अंत हो जायगा न्यारा । चरै चीज और डर कैद सों, ऊबट चलै अटारा, जीन कसै तब सोया चाहे, खाने को होशियारा ।
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करहु चौकड़ा चातुर चौकस, द्यौ चाबुक दो चारा, इस घोरे को विनय सिखावो, ज्यों पावो भवपारा । '
इस बिगड़ैल घोड़े को समय-समय पर शिक्षा देने के लिए दो चार चाबुक जरूरी हैं । शाश्वत सुख को छोड़ क्षणिक सांसारिक सुखों के लिए ललचने वाले जीव को चेतावनी देता हुआ कवि कहता है-किया दौर चहुं ओर जोर से, मृग तृष्णा चितलाय, प्यास बुझावन बूंद न पाई, यों ही जनम गमाया । प्यारे काहे कुं तू ललचाया ।
सुधा सरोवर है या घट में, जिसतें सब दुख जाय, विनय कहे गुरुदेव सिखावे, जो लाऊँ दिल ठाय । प्यारे काहे कू
मेरी मेरी करत वाउरे, फिरे जीव अकुलाय, पलक एक में बहुरि न देखे, जल-बूंद की न्याय । प्यारे काहे कूं ललचाय ।
कोटि विकल्प व्याधि की वेदन, लही शुद्ध लपटाय, ज्ञानकुसुम की सेज न पाई, रहे अधाय अधाय । प्यारे काहे कूं ललचाय |
१. डॉ. प्र ेमसागर जैन - हिन्दी जैन भक्ति काव्य पृ० २९४ से उद्धृत
२. वही पृ० २९५
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