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विनयविजय
इस प्रकार हैं--
प्रणमु कमल निवासिनी, श्री सारद इण नाम,
जास पसायई संपजइ, सरस वचन अभिराम । इसमें दान का माहात्म्य बताया गया है, कवि लिखता है
दान धरम कहीउ केवली चितवित पात्र विचार, लेतां देतां बड़े जणो हेले तरइं संसार ।
दानधरम थी सुख लहइ कयवन्नउ मुनिराय,
जिणि करणी उत्तम करी, प्रणमइ सुरनरपाय । रचना स्थान और रचनाकाल इन पंक्तियों में देखिये--
बुराहीणपुर श्री नगर विराजइ सवि नयरीमइ गाजइरे, जिहां प्रह समव तिहां नोबत बाजइ, जिण दीठा सुख भागइ रे । सोलह सइ निवासी वरसइ, भवियण मननइ हरसइबे,
भीड भंजणा श्री पार्श्व जिणंदा, प्रणमइ सुरअसुर नरंदा बे । अन्त हेमधर्म गणि गुरु वइरागी, करीयावंत सोभागी बे,
तास पसायइ मनसुख भावई, विनयमेरु गुण गावइबे ।' दो रचनाओं के नमूने देकर कवि की रचना शैली का आदर्श रूप प्रस्तुत कर दिया गया है। स्थानाभाव के कारण सभी रचनाओं का विवरण-उद्धरण दे पाना सम्भव नहीं है।
विनयविजय-आप तपागच्छीय आचार्य हीरविजय सूरि की परंपरा में विजयदेव के प्र-प्रशिष्य विजयसिंह के प्रशिष्य, कीर्ति विजय के शिष्य थे। कीर्तिविजय वीरमगाम के थे और अपने समय के अच्छे विद्वानों में गिने जाते थे। इनके शिष्य विनयविजय जी यशोविजय के समकालीन और सहपाठी थे। दोनों ने एक साथ ही काशी में विद्याध्ययन किया था। विनय विजयजी की न्याय और साहित्य में समान गति थी। इनका 'नयकणिका' नामक ग्रंथ अंग्रेजी टीका के साथ छप चुका है। पुण्यप्रकाश स्तवनम् और पंच समवाय स्तवनम् चिन्तन परक रचनायें हैं। १. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० १४६ (द्वितीय संस्करण)
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