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विनयचंद
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विनयकुशल - तथागच्छीय लक्ष्मीरुचि > विमलकुशल के आप शिष्य थे । आपने विजयसेन सूरि के समय सं० १६३८ में 'जीवदया रास' की रचना की । इस रचना का नामोल्लेख करने के अलावा इससे सम्बन्धित अन्य विवरण प्राप्त न हो पाने के कारण यहाँ देना संभव नहीं है । '
विनयचंद - आप तपागच्छीय मुनिचंद्र के शिष्य थे | आपने सं० १६६० चैत्र शुक्ल ६ सोमवार को ६८ कड़ी की एक कृति 'वारव्रत संज्झाय' नाम से पूर्ण की। उसी दिन काका की पुत्री मेलाई ने जैनधर्म स्वीकार किया था । प्रति उसी के लिए लिखी गई थी । इसकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ इस प्रकार हैं
प्रणमु जिनवर प्रणमु जिनवर पास अबार,
पासे दीव वंदिर अछ, सुविधिनाथ दीपतो दीसइ, घण कण कञ्चन बहु परे, धर्म ठाम छइ वसा वीसइ । अमर मिथुन परिशोभता, नरनारीना वृन्द, भाव भगति भली परे, पूजइ सुविधि जिणंद । गुरुपरंपरा पंडित श्री मुनिचंद्र गणि वंदी तेहना पाय, विनइचंद भावे करी, करस्यु व्रत संझाय | रचनाकाल - सोल संवत सोलसम्वत साठि संवच्छ रे,
चैत्र सुदि छठीय दिने, सोमवार सुखकार कही ओ । मेलाई की जैन दीक्षा का सन्दर्भ इन पंक्तियों में देखियेकपोलवंश कीका सुता मेलाई सुविचार, जिनवर धर्म रोदइ धरी, उचरीआं व्रत बार । तपगच्छना ओक विजइसेन सूरि विजइदेवसूरीस्वरो, तसनाम जपीओ कर्मखपीओ वंछित पूरण सुरतरु । अ व्रत वइरागर सुखसागर जे नरनारी सुधा धरइ, पंडित मुनिचंद सीस जंपइ सित्रपद ते अणुसरइ ।
अन्त
१. जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० १७५ (द्वितीय संस्करण और भाग ३
पृ० ७४८ (प्रथम संस्करण )
२.
वही भाग २ पृ० ३८९-९० (द्वितीय संस्करण) और भाग ३ पृ. ८७९-८०
(प्रथम संस्करण )
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