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विद्यासागर
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का नाम नहीं है अतः जैन गुर्जर कविओ के द्वितीय संस्करण के संपादक श्री जयन्त कोठारी को शंका है कि शायद यह किसी अन्य विद्याचन्द की रचना हो।'
विद्यासागर - नामक तीन कवियों की चर्चा मिली है। इसमें एक तो १८वीं शती के हैं और १७वीं शती के दो विद्यासागर हैं। इनमें से प्रथम विद्यासागर तपागच्छीय विजयदान सूरि के शिष्य थे। आपने सं० १६०२ आसो में सूकोशलगीत (गाथा ५१) की रचना की जिसका प्रारम्भ 'जम्बूद्वीप मझारि क्षेत्र भरत मांहे, नयर अयोध्या जाणिये ओ' पंक्ति से हआ है। रचनाकाल इस पंक्ति में बताया गया है
संवत सोलसइ दोई, आस मासवाडइथूणिया,
होइ मुनि पुंगवा । गुरु का उल्लेख इस पंक्ति में हैश्री विजयदान सूरींद, श्री विद्यासागर सेवक देव अनुवीनइ ओ।२
विद्यासागर II ---खरतरगच्छ के आचार्य जिनचंदसूरि के शिष्य सुमतिकल्लोल के शिष्य थे। आपकी तीन रचनाओं का पता लगा हैकलावती चौपई, भीमसेन चौपई और वंदीनु सूत्रटब्बा (गद्य)। इनमें से कलावती चौपई का उद्धरण-विवरण प्राप्त है किन्तु भीमसेन चौपई और टब्बे का कोई विवरण नहीं मिल पाया। इसलिए कलावती चौपई का उद्धरण ही इनकी काव्यशैली के नमूने के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। इसकी रचना सं० १६७३ आसो शुक्ल १०, नागोर में हुई। इसका आदि इस प्रकार है
प्रणमी आदि जिणिंद पह, संतिकरण श्री संति,
ब्रह्मचारि शिरोमणि, नेमीसर नमिसंति । गुरुपरंपरा-जिनमाणिक पाटइ प्रगट, युगप्रधान जिनचंद,
वाचक सुमतिकल्लोल गुरु, प्रणमु परमानंद ।
१. जैन गुर्जर कविओ भाग १ पृ० ४८२-४८३ (प्रथम संस्करण) २. वही भाग ३ पृ० ६४७, ७३२, १५०२ (प्रथम संस्करण)
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