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काल इस प्रकार बताया है
मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
थुणीय मइ' अ अणगारा, जपता जगि जय जय कारा, सोलह उगणोत्तरे आदि श्री सुवधिनाथ प्रसादि । श्री वगडी नयर मझारि, श्री संघ तणइ आधारि । आदि
यह रचना उत्तराध्ययन के आधार पर की गई है। इसका प्रारम्भ देखिए-
सहज सलूणा हो साध जी सेवीयइ, वसीय गुरुकुल वासोजी । सुणीय सखरी हो सीख सुहामणी, छूटी जाई भ्रमबासो जी ।
इसमें भी वही गुरुपरंपरा दी गई है जो सम्मेतशिखर तीर्थमाला में दी हुई है । केवल कवि ने अपना नाम उस क्रम में नहीं दिया परन्तु पूर्ण संभावना है कि यह उन्हीं की रचना होगी ।
विजयसेन सूरि-- आपका जन्म सं० १६०४ फाल्गुन शुक्ल ५ को मारवाड़ के नाडलाई ग्राम में ओसवाल वंशीय कम्माशाह की पत्नी कोडिमदे की कुक्षि से हुआ था । मूलनाम जयसिंह था; ११ वर्ष की अवस्था में विजयदानसूरि ने सूरत में दीक्षा दी और नाम नयविमल रखा । सं० १६३० में ये पट्टधर बने और नाम विजयसेन पड़ा । सम्राट अकबर ने इन्हें 'सवाई' विरुद प्रदान किया था । सं० १६७२ ज्येष्ठ कृष्ण ११ को खंभात में स्वर्गवास हुआ । इनकी एक रचना सुमित्ररास का उल्लेख जैन गुर्जर कविओ भाग १ पृ० ३०० पर श्री देसाई ने किया था किन्तु बाद में भाग ३ पृ० ८०१ पर उसे सुधार कर रचना का कर्त्ता ऋषभदास को बताया है । इसलिए इनकी किसी रचना का पता नहीं है । इनके व्यक्तित्व पर आधारित कई रचनायें हैं जिनसे इनके जीवन विवरण का पता लगता है जैसे विद्याचंदकृत विजयसेनसूरि निर्वाण रास आदि । इस रास का विवरण यथास्थान दिया जायेगा ।
१. जैन गुर्जर कविओ भाग १ पृ० ३०० (प्रथम संस्करण) और भाग ३ पृ० ८० (प्रथम संस्करण )
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