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विजयशेखर
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रामचन्द्र सीता सलही जि द्रूपदी राजीमती,
शील प्रभावि हुइ प्रसिद्धनलराणी दवदंती। रचनाकाल- संवत सोल अकासीइ, ऊजल आसो मासइ रे,
विजयशेखर कहइ संघनइ, होज्यो लील विलासो रे ।' चंद्रलेखा चौपई (३७५ कड़ी) सं० १६८९ पौष शुक्ल १३ शुक्रवार, नवानगर में रची गई।
त्रणमित्र कथा चौपई (आत्म प्रतिबोध ऊपर) सं० १६९२ भाद्र कृष्ण ७ रविवार, राजनगर; इसमें भी कवि ने राग, ढाल आदि का निर्देश किया है। राग केदार ३ ताल, ढाल पहिली 'आदि धरमनी करवा' । इसके पश्चात् चौपई प्रारम्भ की गई है, यथा
श्री जिनशासन सुन्दरु, मानसरोवर मनहरु सुखकरु त्रिजगपती जिनहंसलउ । श्री आदीसर सुरतरु मरुदेवी सुतबंधउ
गुणचारु वंदी जि हरष भलइ । त्रोटक -हरषि भलउ जिणि श्रीमुखि दाखिउ, धरम अपूरब रीतई,
करुणासागर महिमाआगर, सोइ सरगु चिति प्रीतइ । गुरुपरंपरा सभी रचनाओं में एक ही दी गई है जो निम्नवत् हैं
अंचलगछ गिरुउ गुणसागर रतनकरंड समानजी, भट्रारक श्री कल्याण सागरसूरि, जंगम जूगपरधानजी। तस पखि दीपकवाचकपद घर विवेक शेखर मुणिंदजी,
तस सीस पंडित विजयशेखर कहि धरम महिम आणंद जी। रचना स्थान और रचनाकाल
राजनगर मांहि मे कीधउं, आतमानइ प्रतिबोधजी, सीख दीधी सारी जे जाणी, ते जीपी क्रमपोध जी। वरस सोल सइ वाणू ऊपरि, भाद्रवा वदि रविवार जी,
सातमितिथि मृगसिरनक्षत्रइं रचिउ प्रबंध उदारजी, चन्दराजा चौपई (९ खंड सं० १६९४ कार्तिक वदी ११ गुरुवार) यह तप के महत्व पर लिखित है, यथा
१. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० २३८ (द्वितीय संस्करण)
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