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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
विजयशेखर--अंचलगच्छ के सत्यशेखर<विनयशेखर> विवेकशेखर आपके गरु थे, आपने सं० १६८१ में १६ ढाल और ३६२ कड़ी की एक रचना 'कयवन्ना रास' वैराटपुर में लिखी। यह दान के माहात्म्य पर लिखी गई है । इसका आदि देखिये
श्री आदीसर सुखकरण, शान्तिनाथ गुणगेह, नेमि पास वधमान जिन प्रणमुपंच सुनेह । श्री सारद सुपसाउले मुझ मुखि वचन विलास, साधुकथा कहिवा भणी, तिणिवली अंग उल्हास ।
कयवन्ना दाने तिस्यो काढी देतां लीह,
तिणि सुख पाम्यां हारीयां वली लह्या सुदीह ।' -रचनाकाल--सोलह से अकासीई, ज्येष्ठ मास रविवार वे,
श्री वेंराटपुरे रची ज्योडि दान अधिकार वे। आपकी दूसरी रचना 'सुदर्शनरास' (३०५ कड़ी) सं० १६८१ आसोज शुक्ल पक्ष में रचित है। इसके आदि में कवि ने संगीत का जैसा सविवरण उल्लेख किया है उससे वह संगीत का जानकार मालम होता है, यथा
राग केदारु मिश्र, अकताली ताल,
आदि धरमनी करवा 'अ देशी।' अब प्रारम्भिक पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं--
प्रणमु रिषभ जिणंद अ, टालइ, टालइ भवदुह फंद कंद ओ, सिब सुषनु साचउ मही मे। सेवइ सुरासुर इंद अ, मरुदेव्यानउ नंद अ,
चंद ओ नाभि कुलोदधइ सही है। इस रचना में शील का गुणगान करता हुआ कवि लिखता है--
तसु गुण प्रेरिउ मुझनइ फिरी फिरी तिणइ कहुं शील प्रबंध, चित्त कसोटी भांडी जोयुं क्षीलबिना सवि धंध । दान शील तप भावना ग्यारइ धरम त्रिहुं विधि भाख्यउं,
शील तिहाकिणि अधिक वोल्यउ श्री वधमानइ आखिडं। १. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० २३५ (द्वितीय संस्करण)
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