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ब्रह्मवस्तुपाल
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रचना में लेखक ने अपनी गुरु परंपरा इस प्रकार दी है
श्री पूज्य पासचंद सूरीराय, पाट पटंबर सोभ सवाय, पूज्य श्री विजयचंद सुरिंद, वीजयवंत सदा आणंद । हंस वच्छ नो मे प्रबंध, सुणता सरस लागे सम्बन्ध ।
सुरगुरु समबड श्री गुरुराय, श्री हीर मुनि तसु प्रणमे पाय।' चूंकि विजयचंद सूरि का समय १७वीं शताब्दी निश्चित है इसलिए उनके शिष्य हीर के शिष्य वस्तुपाल का रचनाकाल अवश्य ही १७वीं शताब्दी रहा होगा।
ब्रह्मवस्तुपाल-आप दिगम्बर सरस्वतीगच्छ के भट्टारक शुभचन्द्र के प्र प्रशिष्य सुमतिकीर्ति के प्रशिष्य एवं गुणकीर्ति के शिष्य थे। इन्होंने सं० १६५४ आषाढ़ शुक्ल ३ सोमवार को साबली में अपना प्रबन्ध 'रोहिणी व्रत प्रबन्ध' पूर्ण किया था। इसकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ इस प्रकार हैं---
वासुपूज्य जिन वासुपूज्य जिन नमुते सार, तीर्थकर जे बारमो मनवांछित बहुदान दातार सार अ, अरुण वरण सोहामणो सेव्यां विधि सुखतार । बाल ब्रह्मचारी रुवडो सत्तरिकाय उन्नत सहुजल, वसुपूज्य राज्यनंदन निपुण विजया देवी मात कुक्षिनिरमल । जास पसाई जाणीयि कवित कला सुविचार,
विघन सवि दूरि टलि मंगल वति सार । दूहा पुत्री आर्यिका जेह तारे स्त्रीलिंग करीय विणास,
सरगि गया सोहामणा पाम्या देवपदवास।। रोहिणी कथावत सांभली रे श्रेणिक राजा जाणि,
नमोस्तु करी निज थानि गयो भोगवि सुख निर्वाण ।२ कवि ने दिगम्बर सम्प्रदाय के मूलसंघ, सरस्वतीगच्छ, बलात्कारगण के भट्टारक शुभचंद्र से लेकर गुणकीर्ति तक का गुणगान करने के
१. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० ७६६-६७ (प्रथम संस्करण) २. वही भाग २ पृ० २९६-२९७ (द्वितीय संस्करण) और भाग ३ पृ० ८२३
८२४ (प्रथम संस्करण)
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