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वल्हपंडित शिष्य
वल्हपंडित शिष्य ( संभवतः जैनेतर)-सं० १६६२ से पूर्व रचित "कुकडामार्जारी रास' का लेखक पहले तो श्री देसाई ने वल्हपंडित को ही बताया था किन्तु रचना की निम्न पंक्तियों से लेखक वल्ह पंडित का शिष्य ही मालूम पड़ता है, यथा -
प्रथम कि प्रणमौं गणपति देव, काजसिद्धि जिउ करइ ततखेव । गवरीशंकर भल उतपति जास,
कहइ वल्ह पंडित कइ दास । इसके आधार पर जैन गुर्जर कविओ के द्वितीय संस्करण (भाग ३ पु० ४) में संपादक ने इसे वल्ह पंडित के शिष्य की रचना बताया है। कवि ने इसमें 'जिन' शब्द का ऐसा क्लिष्ट प्रयोग किया है, जिससे जैनतीर्थङ्कर और 'मातापिता' दोनों अर्थ निकाले जा सकते हैं; फिर भी संभावना यही है कि वह जैनेतर है, वैसे जैन कवि भी कभीकभी गणेश की वंदना करते हैं--संदर्भित पंक्तियां इस प्रकार हैं
फुनि दूजइ सारदमनि धरइ, कवित काव्य तस तूठइ करइ । लाडु कुसुममाल कर लेई, विनायकु हम सिद्धि बुद्धि देई । अवरे मात-पिता प्रणवाऊं, हउं बलिहारी तिसकइं जाऊँ ।
'जिन' प्रसाद दी संसार, तिन तूठा होइ मोक्षदुवार । यहाँ जिन स्पष्ट ही सर्वनाम है और माता-पिता के लिए प्रयुक्त हुआ है किन्तु जैन तीर्थङ्कर का अर्थ भी लगाया जा सकता है । इसकी अन्तिम पंक्तियाँ देखिये--
मांजरी तणी सोक रति करइ,
जिणि छंदि लीअउ तिणिहि उतरइ ।' श्री देसाई ने विल्ल या विल्ह नामक किसी कवि की एक अनाम रचना (३०४ छंद) के केवल अंतिम दो-तीन छंदों को जैन गुर्जर कविओ में उद्धत किया है। रचना-कर्ता ने उन दो तीन छंदों में दो बार अपना नाम बिल्ह ही दिया है, यथा--
बारमासि विल्ह उच्चरइ सदीयल तु कयर कप्पतर । या सुकवि विल्ह इम उच्चरइ, स्त्री विसास झुणि कोइ करइ । १. जैन गुर्जर कविओ भाग १ पृ० ४६३(प्रथम संस्करण) तथा भाग ३ पृ० ४
(द्वितीय संस्करण)
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