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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
पंक्तियों में बताया है -
संवत सोले पंचाण वरसै, भाद्रवा पुनम हित जी, मुनि वैरागे अधिक भावै, जोड़ रची लालचंद जी। हरषधरी वैराग्य बावनी, गुणसी जे नरनारी जी,
इणभव मांहे हरष पामसी, परभवे सुष अपार जी। इसमें गुरु परंपरा इस प्रकार कही गई है
खरतर गच्छपति सिंध सूरीसर, हीरानंद तसु सीसजी।
गुण लालचंद आतमकाजे, प्रतिबोध्या सुजगीस जी।' हरिश्चन्द्र चौपई (३८ ढाल, गाथा ८०८) सं० १६७९ कार्तिक शुबल १५ धंधाणी में लिखी गई। इसकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ निम्नवत् हैं
शुभमति आपो सारदा, सरस वचन सरसत्ति, ब्रह्माणी सह विधन हर, भलो करे भारति । चउवीसे जिनवर चतुर नाम हुवइ नवनिधि,
श्री गौतम गणधरसधर, सदा करो सांनिधि । इसमें गुरुपरम्परा इस प्रकार बताई गई है
षरतरगछनायक खरो, जंगम जुगपरधान, श्री जिनसिंह सूरीसरु नमीयइ सुगुणनिधान । विनयवंत विद्यानिलो गणि हीरनंदन गाय,
गुरु सुपसायइ गायसुं, रंगइ हरिचंदराय । रचनाकाल--संवत निधि मुनि ससिकला कातिगी पूनिमचंद्र,
च उसाल कीधी चउपइ, ललति गति दो गणिवर लालचंद । श्री देसाई ने जैन गुर्जर कविओ भाग १ पृ० ४८१ पर हरिश्चंद्र चौपई को हरिनंदन की रचना बताया था बाद में भाग ३ पृ० ९७०९७१ पर सुधार कर लालचंद कृत बताया है। -इस रचना का विवरण कवि ने इन पंक्तियों में दिया है
ग्रंथान गाथा गोपठी, सह अष्ट गगन सुसिद्ध, अठतीस ढाल अछइ इहाँ, पुन्यवंता हो करीजो परसिद्ध ।
"१. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० १७४-१७६ (द्वितीय संस्करण)
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