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लालचंद
माना गया है । रचनाकाल इन पंक्तियों में है
संवत सोल चवीसि साषि, मास असाढ़ होत ज पाष । तिथि पंचमीनि गुरुवार, करी चौपई मोटी सार । दूहा गीत सरस बातड़ी, सुणता पातग जाइं हरी ।
जे भणसि गुणसई नरनारि, तिहां घरि लक्ष्मीलालविलास । रचना के अन्त में कवि ने अपना परिचय निम्न पंक्तियों में दिया है
षडक देस नगरी जवाछ, नाति प्रागवाट पोरूवाड,
लाल कहि सुणजो तम्हें सहु, तिहां घरि ऊछव मंगलबहु । जैन कवि हीरकलश ने सं० १६३६ में सिंहासन बत्तीसी कथा लिखी थी, उसमें कई अन्य कवियों के साथ इस कवि की भी चर्चा है, अतः लाल कवि का महत्व प्रमाणित है। कवि ने अपनी रचना के सम्बन्ध में लिखा है
जे फल कन्या दीजि दान, जे फल कीधइ माघ सनान, जे फल तीरथ दीघि दान, ते फल सुणतां श्रवणे कान । एकमना हई सर्वसिद्धि, ते पामि सवि अविचल रिद्धि,
राजरद्धि रामा परिवार, भलई अणचीत्युं तेणिचार ।' लालचंद--आप खरतरगच्छीय आचार्य जिनसिंह सूरि के प्रशिष्य एवं हरिनन्दन के शिष्य थे। आपने मौन एकादशी स्तवन सं० १६६८, देवकुमार चौपइ सं० १६७२ (अलवर), हरीश्चन्द्ररास सं० १६७९. (गंधाणी), 'बीसी' सं० १६९२, रूपसेनचतुष्पदी (३३१ गाथा) सं० १६९३ और वैराग्य बावनी सं० १६९५ में लिखा। इसी समय लालचंद नामक दो-तीन और कवि भी हो गये हैं। आपकी अन्तिम रचना वैराग्य बावनी पर हिन्दी प्रभाव और शेष रचनाओं पर गुजराती का प्रभाव अधिक दिखाई देता है। वैराग्यबावनी की तुलना हीरानंद कृत 'अध्यात्मबावनी' से की जाती है। वैराग्य बावनी (५१ कड़ी) सं० १६९५ भाद्रवा शुक्ल १५ को रची गई। रचनाकाल कवि ने इन १. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ खंड २ पृ० २१३०-३१ (प्रथम संस्करण) २. अगरचन्द नाहटा-परंपरा पृ० ८३ ।। ३. डां० हरीश शुक्ल-जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता पृ० १२३
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