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मरु-गुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का वृहद् इतिहास
लहुआ और लाइया एक ही व्यक्ति प्रतीत होते हैं । जगमाल को हीरविजयसूरि ने गच्छ से बाहर कर दिया था । इसलिए वह अपने शिष्य लहुआ के साथ पेटलाद जाकर वहाँ के हाकिम से मिला और हीरविजयसूरि को पकड़वाने के लिए सिपाहियों को भिजवाया । यह घटना सं० १६३० की बताई गई है और प्रस्तुत रचना सं० १६४० की है अत: लइआ और लहुआ एक ही व्यक्ति होंगे 'हु' का 'इ' पढ़ा जाना सम्भव है अतः लहुआ का लइआ पढ़ लिया गया होगा । इस रास की प्रारम्भिक पंक्तियाँ निम्नलिखित है
गौतम देव नमो सदा, लहीइ सवि सुषसम्पदा, सारदा वाणी आपु निर्मलीइ |
उल्लास - निर्मली वाणी मुझनी आपु, मुक्तिइ सहित गुणवंती । सुरवर नरवर मध्ये दीपइ, अहवी सही सोभंती । तेहि तणां प्रसाद थकी हूँ महाबलनु आख्यान । बोलिसि युक्ति करी निसुणयो पुरुसोत्तम परधान । ' रास की अन्तिम पंक्तियाँ भी नमूने के रूप में प्रस्तुत हैंश्री ऋषि लाइया मोटा मुनिवर
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तेह सिष्यि रचिउरास रे, सोहामणा । भणि गणि भावि करि श्रवण,
सुणति मति उल्हासि रे, सोहामणा ।
बेगि महारा भाइडा, दया रुडी परि राखि रे, सोहामणा ।
लाल - (जैनेतर) ये खडक देशीय जबाछ नगर के पोरवाड़ वणिक थे। इन्होंने सं० १६२४ आषाढ वदी ५, गुरुवार को 'विक्रमादित्यकुमार चौपाई' पूर्ण की। इसका आदि इस प्रकार है
सरसति सामणि वीनवुं मांगु ओक पसाय;
करजोड़ी कवियण कही, सारद तणइ पसाय । ब्रह्मा बेटी वीनवुं हंसा वाहनी मात, अक्षर पद जे उच्चरइ सारथ हो जे मात ।
सरस्वती की वंदना के पश्चात् कवि ने जिनभगवान की वंदना के स्थान पर गौरीनन्दन की वंदना की है, इसीलिए इन्हें जैनेतर १. जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० १७८ ( द्वितीय संस्करण ) २. वही भाग १ पृ० २४० और भाग ३ पृ० ७३० - ३१ (प्रथम संस्करण ;
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