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मरु- गुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
गई थी । इसका आदि देखिये -
मंगलकरण प्रणमुळे सदा, महामंत्र नवकार, नवपद ध्यातां पामीइ, संपद यश विस्तार : सरसति भारति मुझ दीयु, सुन्दर वाणिविलास, तुझ पय ध्यानि कवियरस विरचइ मनि उल्हासि ।
चतुर्थ खंड के अन्त में चूलिका दी गई है, इसमें विस्तारपूर्वक गुरुपरंपरा और रचनाकाल आदि बताया गया है । सम्बन्धित कुछ पंक्तियाँ निम्नांकित हैं
संवत सोल पंचावने ओ, माघ मासि विचार तु 1 सुकलपक्ष तसु जाणीइ रे, दसमि तिथिइ ते सार तु । गुरुवार रचना करी ओ, रोहणी क्षेत्र जोई तु । भणे गुणे जे भावसिउं ओ, तसु अ सुखकर होइ तु । अणहलवाडे पाटण अ, ढंढेरवाडे जाणि तु । साभलो पास सोहाकरु ओ, नमिइ आनंद आणिसु ।' आपकी तीसरी रचना एक ऐतिहासिक स्तवन है । 'धंधाणी नु स्तवन' उसे कहते हैं, वह सं० १६६९ माह वदी ४ को लिखी गई । रचना छोटी है, मात्र २५ कड़ी की है । इसकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ आगे उद्घृत की जा रही हैं
श्री पद्मप्रभु ना पाय नामी, प्रणमु श्री जिनराय । प्रगट थइ प्रतिमा घणी वाधे जग जसवाद ।
यह मूर्ति शायद सं० १६६६ में प्रकट हुई थी । यथा-विक्रम संवछर जाणीओ, छासठा धर सोल,
जेठ सुद अग्गारसे भविक हुआ रंगरोल ।
रचनाकाल - संवत सोल उगणोतरा वरसे माहा मास मन आणो जी । वद चौथे जिनवर जी भेट्या पून तासु ओधाणो जी ॥ वरद्धमान प्रासादे कहीओ महिमा महीमा व्यापा जी ।
श्री ललितप्रभसूरि सुखदायक सब पूरधर करी थापाजी । २
संभवत: स्थापना के अवसर पर ही यह स्तवन रचा गया हो ।
१. जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० २५४ (द्वितीय संस्करण ) २ . वही, भाग २ पृ० २५१-२५४ ( द्वितीय संस्करण ) और भाग १
पृ० ३२०-२२ तथा भाग ३ पृ० ८२५-२७ (प्रथम संस्करण )
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