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मरु-गुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का वृहद् इतिहास शायद यह रचना इसी समय हुई होगी, अर्थात् सं० १६८१ में जब भुज में चौमासा था। इसकी अन्तिम पंक्तियाँ निम्नाङ्कित हैं--
निज सेवक नइ दरसण आयइ, पगि पगि सानिध करि दुख कायइ । गणि ललितकीर्ति चढ़तइ दावइ,
वंदइ गुरु चरण अधिक भावइ ।' इनकी सर्वश्रेष्ठ रचना अगड़दत्तरास (३९६ कड़ी) सं० १६७९ ज्येष्ठ शुक्ल १५, रविवार, भुजनगर में लिखी गई। इसकी प्रारम्भिक पंक्तियां आगे दी जा रही हैं---
नाभि महीपति सिरितिलउ, आदीसर अरिहंत, मन वचनइ काया करी, पणमी श्री भगवंत । वचन सुधारस वासती, सरसती प्रणमी पाय, कालिदास नई तइ कीयऊ मूरष थीं कविराय । हितकारण माता-पिता वलि विशेष गुरुराज;
तीनइ प्रणमुं सदा सारइ वंछित काज । द्रव्यभाव निद्रातजी, जिण जीतउ परमाद,
अगड़दत्त गुणगावतां, नाषिदीयउ विषवाद । रचनाकाल--संवत सोल इगणासी वच्छरइ रे श्री भजनयर मझारि,
जेठ सुदि पूनम रलियामणी रे दिनकर मोटो वार । गुरु परम्परा--श्री खरतरगछ नायक दीपतो रे श्री जिनराज सुरीद,
तेहनइ राजइ इणि मुनिवर तणा रे गण गाया आणंद । अंत-- इम ललितकीरति कहइ भवियण,
सांभलो रे साधुतणा गुणगाइ। रसना कीध पवित्र मइ आयणी रे, लब्धिकल्लोल सुपसाय । सांभलतां भणतां गुण साधुना रे, रोम रोम सुख थाय । नितु नितु रङ्ग वधामणा रे, अविचल सम्पद थाय । २
१. ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह-लब्धिकल्लोल सुगुरु गोतम् २. जैन गुर्जर कविओ भाग १ पृ० ५०९ और भाग ३ पृ. ९९२
(प्रथम संस्करण) तथा भाग ३ पृ० २२८-२३० (द्वितीय संस्करण)
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