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ललितकीर्ति
'गुरुपुत्र छत्रीसी' संज्झाय का आदि इन पंक्तियों से हुआ है
श्री गुरु गुरु गिरुआ नमूजी सद्गुरु समकीत मूल, त्रण्य तत्व मां मूलगुन्जी सद्गुरु तत्व अमूल रे,
आतम ते सेवउ गुरुराय । अंत-- गुरुगुण छत्रीसईछत्रीसी, जोयो आगम अवधि ।
श्री गुणहरष विबुधवरसीसइ लहीइ सीस लबधि ।'
लब्धिशेखर-ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में जिनचंदसूरि गीतानि शीर्षक के अन्तर्गत १०वाँ गीत लब्धिशेखर कृत है। यह ९ कड़ी की लघु गीत रचना राग मल्हार में निबद्ध है। इसमें युगप्रधान जिनचंद सूरि का गुणगान किया गया है। इनकी कोई अन्य रचना उपलब्ध नहीं है।
ललितकीति--आप खरतरगच्छीय कीतिरत्नसूरि शाखा में हर्षविशाल> हर्षधर्म> विनयरंग के शिष्य उपाध्याय लब्धिकल्लोल के शिष्य थे। आपने माघकाव्य और शीलोपदेशमाला की संस्कृत टीका की थी। मरुगुर्जर में आपने 'अगड़दत्तरास'२ की रचना सं० १६७९ भुजनगर, कच्छ में की। ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में आपकी एक रचना 'श्री लब्धिकल्लोल सुगुरु गीतम्' नाम से सङ्कलित है। इससे लब्धिकल्लोल के सम्बन्ध में ये सूचनायें मिलती हैं। वे कीर्तिरत्नसूरि शाखा के विमलरङ्ग के शिष्य थे । उनके पिता श्रीमाल वंशीय लाड़णशाह और माता लाडिमदे थीं। सं० १६८१ में वे भुज में स्वर्गवासी हुए थे । इस गीत का प्रारम्भ देखिये
गुरु लब्धिकल्लोल मुणिंद जयउ, जाणे पूरब दिसि रवि उदयउ । मन चिन्तित कारिज सिद्ध थयउ, दुख दोहग दूरई आज गयऊ । सोलह सइ इक्यासी वर बरसइ, भवियण लोकण देखण हरसइ । गच्छपति आदेशई भुज आया, चउमास रह्या श्रीसंघ भाया।
१. जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० ११९-२४; भाग ३ खंड २ पृ० १०३९-४१
और भाग ३ खण्ड २ पृ० १०८८ तथा ११८० २. श्री अगरचन्द नाहटा-परंपरा पृ० ८०
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