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________________ लब्धिकल्लोल उपाध्याय अंतरि आण्या सरस संयोग, गाथा दूहा काव्य सिलोग, कविमति काई शास्त्र विचार, सुध करिज्यो पंडित सुविचार । x सायर ध्रु जिहां मेरु गिरिंद, ग्रहगण तास जिहां रविचंद, तिहां लगि नंदउ अह प्रबन्ध, भणतां गुणतां नितु आणंद ।' कृतकर्म राजर्षि चौपई (४०७ कड़ी सं० १६६५ विजयादसमी, बब्बेरपुर) इसमें कवि ने स्वयं को विमलरंग का ही शिष्य बताया है और कुशलकल्लोल का नाम नहीं दिया है, यथा तासु सीस वलि विमलरंग महामुणी, सीस सुपरि कहे लब्धिकल्लोल गणि । रचनाकाल - संवत सोल पइसठि वरसइ, विजयदसमी वासरे, वव्वेरपुरवर रास रचीयो, शास्त्र संगत सादरे । शुद्ध करिय भणिज्यो मया करिज्यो संत सज्जन जे गुणी, वाचतां सुणतां सुचिर नंदो, जांम सायर दिनमणी । श्री जिनचंदसूरि रास में पर्याप्त ऐतिहासिक तथ्य हैं किन्तु निम्नाङ्कित पंक्तियों से आभास होता है कि कवि ने बहुत कुछ प्रत्यक्ष अनुभव से नहीं बल्कि अन्य लोगों से सुन-जान कर भी लिखा था, इसलिए कुछ कम वेशी की भी संभावना है बात सुणी जिन जनमुखइ, ते तिम कहिस, जगीस, अधिको ओछो जो हुवइ, कोय करो मत रीस । आपकी भाषा मरुगुर्जर है किन्तु उसमें अनुप्रास आदि के प्रयोग से कवि ने प्रवाह और लय उत्पन्न किया है। उदाहरणार्थ कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं । कृतकर्म रास की प्रारम्भिक पंक्तियाँ देखिये-- अजर अमर अकलंक जिन, आदि अनादि अनंत, तारक त्राता त्रिजग गुरु, पय पणमी भगवंत । इस पंक्ति में अ, त और प का अनुप्रास काव्य की झंकृति उत्पन्न करता है। तुक और लय की दृष्टि से ये पक्तियाँ देखें-- रिषिराज मोटो नहीय खोटो देइ दोटो कर्मने, जिण कुगति वामि सुगति पामी ध्यान धरि निज शुभ मने । १. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० ७८४-८९ (प्रथम संस्करण) २. वही, भाग २ पृ० १५० (द्वितीय संस्करण) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002091
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1993
Total Pages704
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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