________________
लक्ष्मी विमल
४२९%
कापडहेड़ा तीर्थ रास (सं० १६८३, सोजत ), द्वितीय अयमन्ता मुनि सज्झाय ।' श्री मो० द० देसाई ने जैन गुर्जर कविओ भाग १ पृ० ५७ (प्र० सं०) में 'सुरप्रियरास' को इनकी रचना बताया था किन्तु भाग ३ पृ० ४८४ में अपने पिछले वक्तव्य को सुधार कर उक्त रचना को इनके शिष्य की कृति कहा है। वहीं पर देसाई ने लक्ष्मीरत्न कृत आठकर्मरास ( चौपाई) सं० १६३६ का उल्लेख किया है जो आसो शुक्ल ५. रविवार को उभयापुर में लिखी हुई बताई गई है । निम्नांकित पंक्तियों से यह कथन ठीक भी प्रतीत होता है, यथा
सं० १६३६ सो आसो शुदी ५ रविवार, कीधी चउपइ उभयापुर मझार, श्री गुरु लक्ष्मीरत्न ऋषि राय ।
ये पंक्तियां उनके किसी शिष्य की प्रति के प्रशस्ति में लिखी गई मालूम होती हैं, किन्तु द्वितीय संस्करण के संपादक का विचार है कि ये कोई अन्य लक्ष्मीरत्न हैं और सुरप्रिय कुमार रास के लेखक लक्ष्मीरत्न शिष्य भी किसी अन्य लक्ष्मीरत्न के शिष्य हैं क्योंकि उन्होंने गुरु परम्परान्तर्गत श्री जयकल्याण और विमलसोम सूरि को नमन किया है । जयकल्याणसूरि तपागच्छ में सं० १५०२ के आस-पास आचार्य गद्दी पर बैठे थे अतः उस परंपरा के लक्ष्मीरत्न अन्य व्यक्ति होंगे और उनका समय १६वीं शताब्दी होगा । जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० ३६१ प्रथम संस्करण पर लक्ष्मीरत्न सूरि शिष्य विमलसोम की रचना सुरप्रिय कुमार रास का समय सं० १७४१ बताया गया है अतः ये १८वीं शताब्दी के हैं । सम्भावना यह लगती है कि १६वीं, १७वीं और १८वीं शताब्दी के तीन लक्ष्मीरत्नों में घपला हो गया है । प्रस्तुत लक्ष्मीरत्न १७वीं शताब्दी के लेखक हैं किन्तु इनकी गुरु परम्परा और रचनाओं का निश्चय नहीं हो सका है। वहीं पृ० ३६० पर लक्ष्मी रत्न के शिष्य ही र रत्नकृत खेभाहडालियानों रास का भी उल्लेख मिलने से १८वीं शती के लक्ष्मी रत्न और उनके दो शिष्यों हीररत्न और बिमलसोम का निश्चय होता है किन्तु प्रस्तुत लक्ष्मीरत्न के सम्बन्ध में निश्चित सूचनायें नहीं प्राप्त होती हैं ।
-
लक्ष्मीविमल -- आप कीर्ति विमल के शिष्य थे | आपने 'चोबीसी' की रचना की है जिसका आदि और अन्त दिया जा रहा है
१. अगरचन्द नाहरा- परंपरा, पृ० ८८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org