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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
- मित्रानंद रास' भी इनकी कृति न होकर सिद्धिसूरि की रचना हो सकती है। जब तक इन रचनाओं का मूलपाठ न उपलब्ध हो और उनसे प्राप्त अन्तः साक्ष्यों के आधार पर यह सिद्ध न हो जाय कि इनके लेखक का नाम क्या है तबतक इन्हें किसी कवि की निश्चित रूप से रचना कह देना अवैज्ञानिक प्रयास है । श्री अगरचंद नाहटा और श्री मो० ० द० देसाई ने केवल रचनाओं की सूची गिनाई है पर दोनों " विद्वानों ने इन रचनाओं का विवरण- उद्धरण आदि नहीं दिया है अतः यह कहना कठिन है कि इनमें से कौन रचना लक्ष्मीप्रभ की है और कौन किसी अन्य की ।' पुण्यसार चौपइ का कुछ विवरण दिया गया है और वह मुनि जिनविजय जी के संग्रह में है इसलिए उसकी प्रामाणिकता पर शंका नहीं की जा सकती, पर शेष रचनाओं के सम्बन्ध में अधिक छानबीन की आवश्यकता है ।
लक्ष्मीमूर्ति – आप सकलहर्ष सूरि के शिष्य थे । सकलहर्ष को आचार्य पद सं० १५९७ में प्राप्त हुआ था । उनके शिष्य लक्ष्मीमूर्ति ने १७ वीं शताब्दी के प्रथम चरण में किसी वर्ष 'शान्तिनाथ स्तवन' -की रचना की होगी । यह ७० कड़ी की रचना है इसका आदि और • अन्त नमूने के तौर पर प्रस्तुत किया जा रहा है
आदि - त्रिभुवनपति जिन पय नमी संति जिणेसर राय, कर जोड़ि करुं विनति, लहि सहिगुरु पसाय ।
अन्त - इय सन्ति जिनवर नमित सुरनर कुमर गिरिवर मंडणो, श्री सकल हरष सुरिंद सुहकर सकल दुख विहंडणो । वीनव्यो भगति भाव युगतिं सुणी अचिरानंदणो । श्री लक्ष्मिमूरति सीस जंपइ देहि सुहमणनंदणो ।
लक्ष्मीरत्न - श्री अगरचंद नाहटा इन्हें खरतरगच्छीय साहित्यकार बताते हैं और वे इनकी दो रचनाओं का उल्लेख करते हैं - प्रथम
१. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० ९७७ ( प्रथम संस्करण ), भाग ३ पृ० १९५ (द्वितीय संस्करण )
- २. जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० ८-१० (द्वितीय संस्करण ) और भाग ३ पृ० १५०३-०४ (प्रथम संस्करण)
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