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________________ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास लक्ष्मीकुशल-तपागच्छ के सोमविमलसूरि की परम्परा में आप विशालसोम के प्रशिष्य और जिनकुशल के शिष्य थे । आफ्ने सं० १६९४ कार्तिक शुक्ल १३, शुक्रवार को ईडर के समीप ओडाग्राम में 'वैद्यकसार रत्नप्रकाश चौपाई' की रचना की। इसमें लेखक ने तपागच्छ के वीरपाट के ५७ वें पट्टधर सुमतिसाधु से लेकर हेमविमल, सौभाग्यहर्ष, सोमविमल, हेमसोम, विमलसोम, विशालसोम और जिनकुशल तक के आचार्यों का श्रद्धापूर्वक स्मरण किया है । कवि ने अपने को जिनकुशल का शिष्य कहा है, यथा ४२६ जिनकुशल पंडित तेहमां जांण, ग्रहगण मांहि दीपइ जिम भांण । लक्ष्मीकुशल तसु केरो सीस, गुरु प्रसादइ हुई जगीस | १ रचनाकाल - संवत सोल चुराणुं जेह, फागुण सुदि तेरस वली तेह, शुक्रवार संयोगइ सही, लक्ष्मीकुशल अ चउपइ कही । देवगुरु प्रसादि करी, रत्नप्रकाश ओ चउपइ खरी, आगेय निदानसुश्रुत्त नुं सार, अपर ग्रंथ तणो उद्धार । ग्रही नाम रतन ते जांणि, शास्त्र विचारी बोली वाणी, हितकारिणी अ चउपइ सार, रच्या अकादश अधिकार । इसमें ११ अधिकार या भाग हैं । यह आयुर्वेद के सुश्रुत आचार्य की परंपरा पर आधारित ग्रंथ है । इसकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ इस प्रकार हैं सरसति सरस वांणी मुझ आपि, पापपंक टलि तुझ जपि । Jain Education International तुझ नामई संकट ऊपसमइ, मनवंछित तुझ नामई जपइ श्री देसाई ने जैन गुर्जर कविओ भाग ३ १० १०५८ ( प्रथम सं० ) पर इन्हें जयकुल का शिष्य कहा था। जयकुल या जयकुशल तो बाद में हुए हैं अतः इनके गुरु का नाम जिनकुशल ही उचित प्रतीत होता १. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० ३०० (द्वितीय संस्करण ) २. वही, भाग ३ पृ० ३०१ (द्वितीय संस्करण) और भाग १ पृ० ५७२-७३ तथा भाग ३ पृ० १०५८ (प्रथम संस्करण) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002091
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1993
Total Pages704
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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