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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
गुरु परम्परान्तर्गत कवि वीरपट्ट के सुहमसामि से नाम देना प्रारम्भ करता है, फिर जंबू केवली का स्मरण करने के बाद कार्कदीकोटि गण के बयरस्वामी चंद्रगच्छ और तपागच्छ का उल्लेख करता है। तत्पश्चात् वह तपागच्छ के आनंद विमल, विजयदानसूरि और हीरविजयसूरि को सादर नमन करता है । इसके बाद कवि कहता है
तास सीस चउपइ कहई, भणि गुणि ते नवनिधि लहई । रचनाकाल
संवत सोल अकवीसि जाण, कातिका सुदनु मास बखाण ।
ऐकादशी तित्थ ते कही, वार बुद्ध भलुउ लाधु सही। रचना स्थान
रंगविमल कीधी मनि रंग, पाटण नयरइ हुई चंग । जिहाँ पंचासरु छि श्रीपास, सविहुं जन नी पूरइ आस ।
अंत
सूत्र विरुद्ध जु काइं होय, सुद्ध करु गीतारथ सोय । अ कीधी मि सूत्र आधार, कवियण पामइ हर्ष अपार । सती द्रूपदी लीधु नाम, सुखसंपद नू लाधु ठामि । अहु चउपइ तां चिरनंद, जा द्रू तारा मेरु गिरीद। भणसइ सुणसइ जे नरनारि, तिहि घरि मंगल जयजयकार ।'
रंगसार -आप खरतरगच्छीय भावहर्ष के शिष्य थे। 'जिनपालित जिनरक्षित चौढालिया' सं० १६२१ गाथा ७१; ऋषिदत्ता चौपइ सं० १६२६ जोधपुर, शान्तिनाथरास सं० १६२४, गिरनार चैत्य परिपाटी २८ गाथा, वीरमपुर, शांति स्तवन २८ गाथा, नेमिनाथ वृहद्स्तवन और संयति गीत आदि आपकी रचनायें उपलब्ध हैं। श्री अगरचंद नाहटा ने रचनाओं की सूची तो दी है किन्तु अन्य विवरण-उद्धरण कम ही देते हैं। उन्होंने रङ्गसार कृत ऋषिदत्ता चौपइ का आदि और अन्त दिया है जो आगे उद्धत किया जा रहा है
१. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० ७०४-०५ (प्रथम संस्करण) और भाग २ . पृ० १२० (द्वितीय संस्करण) २. अगरचन्द नाहटा-परंपरा पृ० ८८
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