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________________ रंगविमल कवि ने अपनी गुरु परम्परा इस प्रकार बताई हैसिरि खरतरगच्छ बहु सनमानइ, श्री जिनचन्द्र राजि प्रधानइ, श्री जिनभद्रसूरि संतानइ, श्री पद्ममेरु वाचक बहुमानइ । तासु सीस मतिवर्द्धन राजइ, मेरुतिलक दयाकलश निवाजइ, अमरमाणिक वाचक वरसीस, कनकसोम गणि लहइ जमीस | तासु सीस ओ रच्यउ चरित, रंगकुशल कहि पुण्य पवित्त । १ अर्थात् कवि खरतरगच्छ जिनचंद्रसूरि की परम्परा में जिनभद्रसूरि > वाचक पद्ममेरु > मतिवर्द्धन > मेरुतिलक > दयाकलश > अमरमाणिक्य > कनकसोम का शिष्य था । महावीर सत्ताइस भव इनकी संभवतः अंतिम रचना है जो सं० १६७० ज्येष्ठ कृष्ण १३ को पूर्ण हुई । स्थूलिभद्र रास उत्तम रचना है । स्थानाभाव के कारण अधिक विवरण उद्धरण देना सम्भव नहीं है । ४२३ 1 रंगविमल - तपागच्छ के प्रसिद्ध आचार्य हीरविजयसूरि के आप शिष्य थे । आपने सं० १६२१ कार्तिक शुक्ल ११ बुधवार को पाटण में ३६७ कड़ी की एक रचना 'द्रौपदी चौपाई' नाम से लिखी । इसकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ इस प्रकार हैं --- सुमति जिणेसर पणमी पाय, वाणी आपु भारती माय । तुं ब्रह्माणी नि सरस्वती, बार नाम ते तुं भगवती । हुं मांगु छं ताहरि पास, सांचउ अक्षर वचन विलास | सती द्रूपदी तणुं चरित्र, करतां हुइ जनम पवित्र । २ अंतिम पंक्तियाँ आगे उद्धृत की जा रही हैं aar सती छिइ ते घणी, द्रूपदी सती मि आदि भणी, संघली सतीनां लीजि नाम, मुक्तिपुरीनुं लाभि ठांम । Jain Education International १. जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० २३१-३२ (द्वितीय संस्करण) और भाग ३ पृ० ७७८-७९ (प्रथम संस्करण ) २. वही, भाग २ पृ० ११९- १२० ( द्वितीय संस्करण) और भाग ३ पृ० ७०४-०५ (प्रथम संस्करण ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002091
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1993
Total Pages704
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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