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उपोद्घात अनन्य प्रेम का उत्कृष्ट उदाहरण हमें महात्मा आनन्दघन जी की रचनाओं में प्रचुर परिमाण में उपलब्ध है, यथा'पिया बिना सुद्ध बुद्ध भूली हो। आँख लगाइ दुःख महल के झरुखे झली हो। प्रीतम प्राणप्रिय बिना प्रिया कैसे जीवे हो। प्रानपवन विरहादशा भुयंगम पीवे हो।'
....... आदि । या 'सुहागण जागी अनुभव प्रीत ।
निन्द अज्ञान अनादि की मिट गई निज रीति ।' .."इत्यादि या 'आज सुहागन नारी, अवधू । ____ मेरे नाथ आप सुधि लीन्हीं, कीनी निज अंगचारी । अवधू
दास्य -दास्यभाव की भक्ति में विनय का स्थान सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। सेवक-सेव्य भाव या दास्य भाव के अन्तर्गत स्वामी की सेवा, सेवक का दैन्य और उसकी लघुता, आराध्य की महिमा और उसके नाम जप आदि का वर्णन आता है। जैन साहित्य में ये सभी भाव विभिन्न कवियों ने बड़े उत्तम ढंग से व्यक्त किये हैं।
भैया भगवतीदास का निम्न सवैया इस सन्दर्भ में द्रष्टव्य है--- "काहे को देश दिशान्तर धावत, काहे रिझावत इंद नरिंद । काहे को देव औ देवि मनावत, काहे को सीस नवावत चंद । काहे को सूरज सों कर जोरत, काहे निहोरत मूढ़ मुनिंद । काहे को सोच करै दिन रैन तू, सेवत क्यों नहिं पार्श्व जिनंद ।"
शान्त भाव और रस को जैन साहित्य में प्रधान भाव और रस. राज माना गया है। इसकी चर्चा १६वीं शताब्दी के इतिहास में की जा चुकी है, एक उदाहरण देखिए। बनारसीदास जी लिखते हैं---
सत्य सरूप सदा जिनकै प्रगट्यौ अवदात मिथ्यात निकंदन । शांत दशा तिन्ह की पहिचानि, करें करजोरि बनारसी वंदन ।
शुक्ल ध्यान में निरत तीर्थंकर शान्ति के प्रतीक होते हैं। उन्हें वीतरागत्व पूर्व संस्कार के रूप में जन्म से ही प्राप्त रहता है । संसार में रहकर कभी वे भोगविलास भी करते हैं, कभी राज्य शासन भी १. आनन्दघन-पदसंग्रह पद ४१ पृ० ११९ २. भैया भगवतीदास-ब्रह्मविलास पृ० ९१
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