________________
मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहासा
'परमार्थी दोहा शतक' को परमार्थं दोहरा भी कहा जाता है । इसमें १०१ दोहे हैं । यह 'जैन हितैषी' में रूपचंदशतक के नाम से प्रकाशित भी हो गया है । यह रचना अध्यात्म तत्व के मनोरम पद्यों से युक्त है । रूपचंद पांडे दृष्टान्त देने में पटु थे, यथा
४२०
चेतन चित परिचय बिना, जप तप सबै निरत्थ, कन बिन तुस जिमि फटकतें, आवै कछू न हत्थ । '
प्रति का प्रथम पत्र अप्राप्त होने के कारण श्री मो० द० देसाई ने १४वीं कड़ी से इसके प्रारम्भ का उद्धरण दिया है
"बालक फणि सों खेल । विषयनि सेवत सुख नहीं कष्ट भले ही होइ, चाहत हउ कर चाक ने निखंगु सलिल विलोइ । इसकी अंतिम दो कड़ियाँ इस प्रकार हैं
―
...
गुरुनि सखायो, मै लख्यौ, वस्तुभली परि दूरि, मन सरसीरुह नाल ज्यउं, सूत्र रह्यो भरपूरि । रूपचंद सद्गुरुजी की जन बलिहारी जाइ, आपुन पे सिवपुर गये भव्यनुं पंथ दिखाइ | २
कवि की रचना - शैली कबीर की रचनाओं, विशेषतया गुरुभक्ति कौ अंग' का स्मरण दिलाती है, इन्होंने भक्तिरसयुक्त पद भी लिखे हैं
यथा
प्रभु तेरी परम विचित्र मनोहर मूरति रूप बनी । अंग अंग की अनुपम शोभा, बरनि न सकत फनी । सकल बिकार रहित बिनु अंबर सुन्दर सुभ करनी । निराभरन भासुर छवि सोहत, कोटि तरुन तरुनी । वसुरस रहित सांत रस राजत, खलि इहि साधुपनी । जाति विरोधि जंतु जिहि देखत, तजत प्रकृति अपनी । दरिसनु दुरित हरै चिर संचित, सुरनर फनि मुटनी । रूपचंद कहा कहो महिमा, त्रिभुवन मुकुट मनी ।
१. डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल - प्रशस्ति संग्रह पृ० २३५ २. जैन गुर्जन व विओ भाग ३ पृ० ३८५ ( द्वितीय संस्करण) ३. डॉ. प्रेमसागर जैन- हिन्दी जैन भक्ति काव्य पृ० १६८-१७२
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org