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पांडे रूपचंद
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समवशरण पाठ को 'केवलज्ञान कल्याण चर्चा' भी कहते हैं । इसकी रचना सं. १६९२ में हुई । इसकी प्रशस्ति से पता चलता है कि पांडे रूपचंद का जन्म सलेमपुर निवासी गर्गगोत्रीय भगवानदास की दूसरी पत्नी की कुक्षि से हुआ था। इन्होंने काशी में शिक्षा प्राप्त की और व्याकरण, जैनदर्शन आदि का गूढ़ अध्ययन किया। काशी से लौटकर वे दरियापुर गये जहाँ अब उनका परिवार रहने लगा था। बाद में वे आगरा गये। वहाँ वे तिहना साहु के मंदिर में रहते थे; अर्द्ध कथानक में लिखा है--
अनायास इस ही समय नगर आगरे थान, रूपचंद पण्डित गुनी आयो आगम जान । तिहुना साहु देहरा किया, तहां आय तिन डेरा लिया।
सब अध्यात्मी कियो विचार, ग्रन्थ बचायो गोम्मटसार ।' इस मन्दिर में भट्टारक या उनके शिष्य ही ठहर सकते थे। इसी आधार पर नाथूराम प्रेमी ने अनुमान किया है कि वे किसी भट्टारक के शिष्य थे। उस समय भट्टारकों के शिष्य 'पांडे' कहे जाते थे, शायद इसीलिए रूपचन्द पांडे कहे जाते होंगे। कवि बनारसीदास को समयसार की राजमल्लीय टीका से जो भ्रम उत्पन्न हो गया था, उसका उन्मूलन इन्हीं रूपचन्द पाण्डे ने किया था। इनसे गोम्मटसार पढ़कर बनारसीदास और उनकी मण्डली का मिथ्यात्व दूर हुआ और वे दृढ़ जैन हो सके। उन्होंने लिखा हैसुनि-सुनि रूपचन्द के बैन, बानारसी भयो दिढ़ जैन।
__ (पद्य ६३५) इन कथनों से स्पष्ट है कि पांडे रूपचंद जैनदर्शन, अध्यात्म एवं जैनसिद्धान्त के प्रकाण्ड विद्वान् थे, साथ ही वे अच्छे कवि भी थे। इन्होंने हिन्दी में उच्चकोटि का रद्य साहित्य भी रचा है। उनकी महत्वपूर्ण रचनायें-परमार्थी दोहाशतक, गीत परमार्थी, मंगल गीत प्रबन्ध, नेमिनाथ रासा, खटोलना गीत, वणजारागीत आदि हैं। इसके अतिरिक्त सैकड़ों गेयपद भी प्राप्त हैं। इनका मंगलगीत प्रबंध 'पंचमंगल' नाम से जनसमाज में खूब प्रचलित है। इनका देहावसान सं० १६९४ में हुआ। १. नाथराम प्रेमी-अर्द्धकथानक (बनारसीदास) पद्य सं० ६३०-३१ २. जैन हितैषी भाग ६ अंक ५-६
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