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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
भविष्यदत्त चौपाई - इसकी कथा जैन समाज में बड़ी लोकप्रिय रही है । प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत और हिन्दी में इस कथा पर आधारित अनेक रचनायें लिखी गई हैं । प्रस्तुत रचना सं० १६३३ में महाराज भगवन्तदास के राज्यकाल में सांगानेर में लिखी गई थी । कथा का संक्षेप इस प्रकार है । कुरु प्रदेश के हस्तिनापुर नगर में सेठ धव की पत्नी कमलश्री का पुत्र भविष्यदत्त था । कुछ समय बाद सेठ ने कमलश्री को तिरस्कृत कर उसकी छोटी बहन सरूपा से विवाह रचा लिया जिससे एक पुत्र बन्धुदत्त पैदा हुआ । बन्धुदत्त के साथ भविष्यदत्त भी रत्नद्वीप व्यापार के लिए चला पर रास्ते में बन्धुदत्त ने उसे छोड़ दिया । वह एक शिला पर बैठकर परमेष्ठि का ध्यान करने लगा । फलतः वह मदन द्वीप का राजा हो गया और उसकी शादी भविष्यानुरूपा से हो गई । कमलश्री श्रुतपंचमी का व्रत करके पुत्र की मंगल कामना कर रही थी अतः भविष्यदत्त का मंगल हुआ किन्तु बन्धुदत्त बड़ी मुसीबतों में फंस गया । रास्ते में फिर दोनों की भेंट हुई । साथ-साथ हस्तिनापुर के लिए रवाना हुए, पर बन्धुदत्त ने पुनः धोखा किया । भविष्यदत्त को छोड़ दिया और घर पहुँचकर कुमारी भविष्या और सारे धन को अपना बताया । तभी भविष्यदत्त भी आ पहुँचा । सब सच्चा वृत्तान्त जानकर राजा ने बन्धुदत्त को देश निकाला दे दिया । भविष्यदत्त की वीरता से प्रभावित होकर राजा ने अपनी कुमारी की शादी भी भविष्यदत्त से कर दिया । इसीलिए कवि कहता है
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जैन धर्म निहची करौ, चालै मारग न्याय, तसु सेवा सुरपति करें, अंति सुर्गे जाइ ।
इस प्रकार वह पुत्र परिवार से सम्पन्न होकर अनेक वर्षों तक राजसुख भोगता रहा अंत में विमलबुद्धि के उपदेश से उसे वैराग्य हुआ, संयमव्रत धारण किया और निर्वाण प्राप्त किया ।
काव्य भाषा सरल ढूंढाड़ी है । इसका मङ्गलाचरण इस प्रकार प्रारम्भ हुआ है
स्वामी जिनप्रभ जिणनाथ, नमौं चरण धरि मस्तकि हाथ । लंछिन वण्यो चंद्रमाता सु, काया उज्जल अधिक उजासु ।
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