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ब्रह्म रायमल्ल
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मैनासुन्दरी के पास पहुंचा । उसके वियोग का वर्णन यथा स्थान उत्तम हुआ है । वीर रस के वर्णन का अवसर भी कवि को तब मिल गया है जब उज्जयिनी से वह चंपा जाते समय राजा वीरदमन को युद्ध में परास्त करता है, एक नमूना देखिये
हो घोड़ा भूमि खणै सुरताल,
जो जाणि कि उलटिउ मेघ अकाल ।
रथ हस्ती बहु साखती हो, दहुं पक्ष की सेना चली । सुभग संजोग संभालिया हो, अणी दुहुं राजा की मिली । "
अन्त में उसे श्रुतसागर मुनि के उपदेश से एवं कीचड़ में फँसे हाथी को देखकर वैराग्य हुआ; दीक्षा ली और मुक्ति पाया । इस प्रकार यह रास २९७ पद्यों में समाप्त हुआ । इसकी भाषा ढूंढाड़ प्रदेश की बोलचाल की भाषा से प्रभावित है ।
नायक श्रीपाल और नायिका मैना का चरित्र अच्छी तरह वर्णित है । चरित्र के माध्यम से णमोकार मन्त्र का माहात्म्य भी दिखाया गया है । दोहा और रास छंद का इसमें प्रयोग किया गया है । प्रत्येक छन्द के अन्त में 'रासभणों श्रीपालको' अंतरा दिया गया है । रचना - काल और स्थान इस प्रकार कहा है
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सोलह से तीसो सुभ वर्ष, रणथर सोभैं कविलास, साथ ही अपनी गुरुपरंपरा भी दी है । प्रारम्भिक पद्य देखिये
अन्तिम छंद इस प्रकार है
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हो स्वामी प्रणमी आदि जिणंद,
वन्दौ अजित दोइ अति चंग ।
संभवेद जुगतियों हो अभिनन्दन का प्रणउं पाइ । सुमति नमो स्वामी सुमति दे हो, पद्मप्रभ प्रणमों बहुभाइ । रास भणौं सिरिपाल को ।
हो से अधिक छिन वै छंद, कवियण भण्यो तासु मतिमंद । पद अक्षर की सुधि नहीं, हो जैसी मति दीनौ औकास । पंडित कोई मति हंसी, वैसी मति कीनौ परगास । रासमणौं सिरिपाल को ।
१. डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल - महाकवि ब्रह्मरायमल्ल पृ० ४८, पृ० २०१ २ . वही, प्रशस्ति संग्रह पृ० २६९
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