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मरु गुर्जर जैन साहित्य का बृहद इतिहास
रास के अन्त में कवि ने अपनी गुरुपरंपरा पूर्ववत् दुहराई है और
रचनाकाल इस प्रकार बताया है
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अहो सोलह से गुणतीसे वैशाखि,
सातैजी राति उजाले जी पाखि ।
साहि अकबर राजिया, अहो भोगवैराज अति इन्द्र समान । चोर लबांड राखँ नहीं, अहो छह दर्शण की राखजी मान ।' इसका प्रारम्भ इस प्रकार हुआ है
प्रथम प्रणमों आदि जिणंद, नाभिराजा कुलि उदयाजी चंद । नगर अयोध्या ऊपने स्वामी, पूरब लाख चौरासी जी आई । मरुदेजी मात हे उरि धरिउ ।
रचना की पंक्तियों के बीच प्रयुक्त 'हो' 'जी', 'अहो' आदि भरती के शब्द भाषा को लचर बनाते हैं ।
श्रीपाल रास (सं० १६३०, रणथंभौर ) कथासार - उज्जयिनी के राजा पहुपाल ने अपनी कन्या मैनासुन्दरी का विवाह श्रीपाल नामक एक कोढ़ी से कर दिया। दोनों की सेवा से प्रसन्न होकर मुनि ने सिद्धचक्रव्रत का माहात्म्य बताया, जिसके पालन से श्रीपाल का कोढ़ ठीक हो गया । श्रीपाल की वीरता से प्रभावित हो धवल सेठ ने उसे अपना धर्म पुत्र बना लिया । वह रत्नदीप गया और उसके छूते ही चैत्य के वज्र कपाट खुल गये । राजा ने प्रसन्न होकर रत्नमंजूषा नामक राजकुमारी का उससे विवाह किया पर सेठ धवल रत्नमंजूषा पर आसक्त हो गया । सेठ के मन्त्री ने श्रीपाल को समुद्र में फेंक दिया । सेठ ने रत्नमंजूषा के साथ बलात्कार करना चाहा किन्तु उसकी देवियों ने सहायता की उधर श्रीपाल णमोकार मन्त्र के बल से बहता - बचता किसी द्वीप के किनारे जा पहुँचा । धनपाल ने अपनी कन्या गुणमाला का उससे विवाह दहेज दिया । अन्त में वह अपनी दोनों पत्नियों के रहने लगा ।
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कोंकण देश के राजा की आठ कन्याओं के प्रश्नों का उत्तर देकर उनसे भी विवाह किया । १२ वर्ष बीतने पर वह पुनः उज्जयिनी में "१ डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल - महाकवि ब्रह्मरायमल्ल एवं त्रिभुवनकीर्ति पृ० ३७
२. वही, प्रशस्ति संग्रह पृ० २६९
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वहाँ के राजा
किया और खूब साथ सुख पूर्वक
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