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मरु - गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
इसके पश्चात् हनुमान की कथा प्रारम्भ हो गई । हनुमान को राम के दूत से सीताहरण का समाचार मिला, वे राम से मिले और फिर परंपरित कथा है । राम-रावण युद्ध के पश्चात् हनुमान कुण्डलपुर पर राज्य करने लगे । अन्त में वैराग्य हुआ, दीक्षा ली और निर्वाण प्राप्त किया । संवतोल्लेख वाली यह दूसरी रचना सं० १६१६ वैशाख कृष्ण ९ को समाप्त हुई। इसमें ७५७ पद्य है जो वस्तुबंध, दोहा, चौपाई आदि छंदों में निबद्ध है । इसकी भाषा राजस्थानी प्रभावित हिन्दी ही है जिसे सुविधा पूर्वक मरुगुर्जर कहा जा सकता है ।
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ज्येष्ठजिनवर कथा - यह लघु रचना प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के जीवन पर आधारित है । यह सं० १६२५ में सांभर में रची गई । रचना सामान्य कोटि की है । इसकी प्रति अजमेर के भट्टारकीय शास्त्र भण्डार में सुरक्षित है । 'प्रद्युम्नरास परदवणरास' एक महत्त्वपूर्ण कृति है यह सं० १६२८ भाद्र शुक्ल २, बुधबार को हरसोर में लिखी गई इसके प्रारम्भ में तीर्थङ्कर वंदना के बाद द्वारिका वर्णन से रास की कथा का प्रारम्भ होता है । इसमें सत्यभामा के रूपगर्व को दूर करने के लिए नारद द्वारा कृष्ण का रुक्मिणी से विवाह कराना, प्रद्युम्न की उत्पत्ति और कालसंवर की पत्नी कञ्चनमाला की प्रद्युम्न के प्रति आसक्ति, कालसंवर की पराजय, प्रद्युम्न का द्वारका लौटना तथा रुक्मिणी का हरण और कृष्ण से युद्ध होने तक का वर्णन किया गया है । कवि युद्ध का वर्णन करता हुआ कहता है
हो असवारां मारैं असवारो, हो रथ सेथी रथ जुडै झुझारो ।
हस्ती स्यौ हस्तो भिडैजी, हो घणों कहो तो होइ विस्तारी । "
अन्त में दुर्योधन की पुत्री उदधिमाला से प्रद्युम्न का विवाहोत्सव और सुखपूर्वक जीवन-यापन के पश्चात् वैराग्य, दीक्षा और मुक्ति आदि परंपरित बातें कही गई हैं । प्रत्येक छंद के आरम्भ में 'हो' भरती का शब्द भरा गया मिलता है । दिखावण, बोल्या, चाल्यो, आइयो आदि राजस्थानी बोलचाल के प्रयोग या हियडे, किस्न, ब्याहु जैसे ठेठ राजस्थानी प्रयोग इसकी भाषा की विशेषतायें हैं । इसके रास छंद के ६ पद हैं, जिनमें २० से १८, १७-१७ तथा १९ - १९ मात्रायें हैं । कवि ने इसे कड़वा छन्द कहा है । इसमें कुल १९५ पद्य हैं ।
१. कस्तूरचन्द कासलीवाल - भट्टारक ब्रह्मरायमल्ल और त्रिभुवनकीर्ति
पृ० ३३
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