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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास हुई, बात बढ़ गई और नौबत कृष्ण-नेमि के मल्लयुद्ध की आ गई। कृष्ण ने नेमि के बल का अनुमान कर उनके पिता समुद्रविजय और माता शिवादेवी को समझाया कि वे लोग किशोर नेमिकूमार का विवाह उग्रसेन की कन्या राजीमती से कर लें। आगे की कथा परंपरित है। राजुल के शृगार का वर्णन देखियेअहो मंदिरि राजल करौजी सिंगार,
सोहैजी गली रत्नाड्यो हार । नासिका मोती जी अति वण्यो, अहो,
पाई नेवर महा सिरहा मैंह मंद । काना ही कुंडल जति भला, अहो,
___ मेरुं दुहं दिसो जिम सूर अर चंद ।' पशुओं की करुण पुकार सुनकर नेमि कंकण तोड़कर तपस्या के लिए गिरिनार पर्वत पर चले गये, उस पर कवि कहता है-- स्वामी जीव पसू सहु दीना जी छोड़ि,
चाल्यौ जी फेरि तप नै रथ मोड़ि । xxx जप तप संजम पाठ सहु पूजाविधि त्यौहार,
जीव दया विणा सहु अफल, ज्यौं दुरजन उपगार । राजुल नेमि के गिरनार जाने की सूचना पाकर मूर्छित हो गई
अहोजी वचन सुणता मुरछाई,
काहिजी वेलि जैसों कुमलाई। इस रचना में रचनास्थान-झंझनू नगर तथा वहाँ के उद्यान, रहनेवाली ३६ जातियाँ, राजपरिवार और पार्श्वनाथ के जैन मंदिर आदि का यथास्थान वर्णन किया गया है। कवि ने अपने गच्छ का परिचय दिया है
थी मूलसंघ मुनि सरसुति गच्छ,
छोड़ि हो चारि कषाय निभंछ । अनंतकीर्ति गुरु विदितौ तासु
तणे सिषि कीयो जी वषाण । १. डा० कस्तूरचंद कासलीवाल-- महाकवि ब्रह्मरायमल्ल एवं भट्टारक त्रिभुवनकीर्ति पृ० १९
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