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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास इस के पश्चात् ऋषि जी ने गुजराती गच्छ की गुर्वावली दी है। उन गुरुओं की प्रशंसा में कवि लिखता है
जेहनो जग जस निर्मलो, दिन-दिन दीपे तेज, तसु सीस आदेस गुरु ने, ऋषिरामदास रे पभणेसुहेज । पंडित मांहि सरोमणी, विचरेजिम गजेन्द्र,
श्री उत्तमभाई भला, थिवर गुणियण रे जसवंत मुणिंद । रचनाकाल
संवत सोल त्र्याणुवा वर्षे, मालव देस मझारि, सारंगपुर सुन्दरनगरे, जेठ वदि तेरस रे वृहस्पतिवार । पुन्यपाल चरित सोहामणो, सांभले जे नर सुजांण, ऋद्धि समृद्धि सुख सम्पदा, ते पगि पगि पामे रे कोडि कल्याण।'
रायचंद-पद्मसागर के शिष्य गुणसागर आपके गुरु थे। आपने सं० १६८२ कार्तिक शुक्ल ५ गुरुवार को सोपरगढ़ में 'विजयसेठ विजयसती रास' की रचना की। रचनाकाल इस प्रकार बताया गया है
संवत सोल बयासीयइ काती सुदि पंचमि गुरुवार तओ,
श्री सोपरगढ़मई भलउ रास रच्यो मन हर्ष अपार तओ। गुरुपरंपरा रचना में निम्न प्रकार से दी गई है
श्री पद्मसागर पाटि प्रतपइ श्री गुणसागर प्रभु सदा,
रामचंद मुनि तसु पाय प्रणमी रच्यो प्रकृत धरि मुदा। इसमें विजया सेठानी के सतीत्व की प्रशंसा करके शील का माहात्म्य समझाया गया है। १८वीं शताब्दी (विक्रमीय) में रायचंद नाम के एक अन्य प्रसिद्ध कबि हो गये हैं जिनका विवरण श्री मो० द. देसाई ने जैन गुर्जर कविओ के भाग २ पृ० ५८४ पर दिया है।
१. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० २९९ (द्वितीय संस्करण) २. वही, भाग ३ पृ. २४ (द्वितीय संस्करण), तथा भाग १ पृ० ५१४
(प्रथम संस्करण)
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