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रामदास ऋषि
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गच्छ की रङ्गविजय शाखा के प्रवर्तक थे। जिनरङ्गसूरि का दीक्षानाम रङ्गविजय था। आपने सं० १६७८ फाल्गुनवदी सप्तमी को जैसलमेर में दीक्षा ली थी। जिनराजसरि ने इन्हें उपाध्याय या पाठक की पद्वी दी थी। इस गीत से ये सूचनायें प्राप्त होती हैं, यथा
मनमोहन महिमानिलउ, श्री रङ्गविजय उबझायन रे, सेवत सुरतरु सम बड़इ सबहिकइ मनभायन रे। संवत सोल अठहत्तरइ जेसलमेरु मझारिन हो,
फागुणवदि सत्तमि दिनइ, संयमल्यउ शुभवारन हो । आप सिंधुड़ वंशीय सांकर साह और उनकी पत्नी सिंदूरदे के सुपुत्र थे । अनेक राजा-सामन्त आपका सम्मान करते थे। इस गीत की अंतिम पंक्तियाँ निम्नवत् हैं
बड़शाखा जिम विस्तरउ प्रतपउ जां रवि चंदन रे,
राजहंस गणि बीनवइ, देज्यो परम आणंदन रे । इसमें कुल सात कड़ियाँ हैं।
रामदास ऋषि --गुजराती लोकागच्छीय, रूपजी> जीवजी> वरसिंह > लघुवरसिंह> जसवंत> रूपसिंहा कुंरपाल> हापा> उत्तम के आप शिष्य थे। आपने 'पुण्यपालनो रास' नामक रचना चार खण्डों में ८२३ कड़ी की सं० १६९३ ज्येष्ठ कृष्ण १३ गुरुवार को सारङ्गपुर (मालवा) में पूर्ण की। इसका आदि देखिये
श्री शांतिसर सोलमा, समरूं सरसति माय, मूरख ने पंडित करे, प्रणमुं श्री गुरुपाय । दान शील तप भावना भवोदधि तारण पोत;
अनन्त सुखने अनुभवे, शिवपुर होय उद्योत । यह दान पुण्य पर आधारित चरित्र है, कवि ने लिखा है
दाने सम्पति संपजे, कीरति करे कल्लोल, अलिय विघन दूरे पुले, पगि-पगि छाकमछोल । जिनपति पदवी पामीया, चक्रवर्ति इन्द्र विमान,
सुखीया जे जग जाणीई, सधले दान प्रधान ।' १. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० २९८-२९९ (द्वितीय संस्करण) और
भाग ३ पृ० १०४१-४२ (प्रथम संस्करण)
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