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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास श्री अगरचन्द नाहटा ने 'प्रवचनसार' की भी सूचना दी है किन्तु अन्य विवरण-उद्धरण नहीं दिया है। उन्होंने इन्हें १६वीं शताब्दी के लेखकों में रखा है। किन्तु रचनाकाल या अन्य कोई प्रमाण ऐसा नहीं दिया है जिससे इन्हें विक्रम सं० १७वीं शताब्दी का लेखक न माना जाय । श्री देसाई ने जिन हस्त प्रतियों का ब्यौरा दिया है उनमें से कई प्रतियों में इसका रचनाकाल सं० १६६२ दिया गया है अतः यह रचना १७वीं शताब्दी के प्रथम चरण की भी हो सकती है। श्री देसाई ने तो इसे १७वीं शताब्दी की ही रचना माना है। अतः यहाँ भी १७वीं शताब्दी के लेखकों में इन्हें स्थान दिया गया है।
राजहंस II-आप खरतरगच्छीय आचार्य जिनचन्दसूरि की परम्परा में उपा० समयराज के प्र-प्रशिष्य अभयसुन्दर के प्रशिष्य एवं कमललाभ के शिष्य थे । आपने विजय शेठ चौपइ सं० १६८२ मुलतान में लिखी। इसका प्रारम्भ इन पंक्तियों से हुआ है
प्रणमी पास जिणंद पहु, विधि स्युं वर दातार, मूलताणि महिमा प्रगट, जगजीवन जयकार । श्री वर्द्धमानजिनवंदीयइ, सासननायकसार;
गौतम सुधर्म प्रमुख गुरु, सुयदेवी श्रुतधार । गुरुपरंपरा और रचनाकाल
देस विदेसइ विचरता रे, आया श्री मुलताण, कमललाभ पाठकज्यां रे, सुललित करइ बषांण । लबधिकीरति गणि तेहना रे, सीस सिरोमणि जाणि, राजहंसगणि इम भणइ रे, सील संबंध सुवाणि । संवत सोलह व्यासीयइ रे, माह सुदि पंचमि जोगि,
सुमतिनाथसुपसाउलइरे सफल फल्यउ उपयोगि । 'ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह' में 'जिन रंगसूरि गीतानि' शीर्षक के अन्तर्गत प्रथम गीत के कर्ता राजहंस गणि हैं । जिनरंगसूरि खरतर
१. श्री अगर चन्द नाहटा-राजस्थान का जैन साहित्य पृ) २२९ २. श्री अगर चाद नाहटा-परंपरा पृ० ८२ ३ जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० २४७ (द्वितीय संस्करण)
४. वही, भाग ३ १० १०२४-२६ (प्रथम संस्करण) Jain Education International For Private & Personal Use Only
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