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मरु-गुर्जर मैन साहित्य का बृहद् इतिहास
इसका प्रथम छन्द इस प्रकार है
समरूं सरसति गौतम पाय, प्रणमुं सहि गुरु खरतरराय, जासु नामइं होय संपदा, संभरता नावइ आपदा । पहिला प्रणमु उद्योतनसूरि बीजा वर्द्धमान पुन्यपूरि,
करि उपवास आराहि देवि, सूरिमंत्र आप्यो तसु हेवि । अन्तिम दो छंद निम्नाङ्कित हैं
ओ खरतर गुरु पट्टावली, कीधी चउपइ मननिरमली, ओगणत्रीस ओ गुरुमां नाम, लेतां मनवंछित थाले काम । प्रह उठी नरनारी जेह, भणइ, गुणइ ऋद्धि पामइतेह, राजसुन्दर मुणिवर इम भणइ, संघ सहूनइ आणंदकरइ ।'
राजसोम --खरतरगच्छीय हर्षनंदन के प्रशिष्य और जयकीर्ति के शिष्य थे। इनके गुरु और प्रगुरु दोनों ही प्रसिद्ध विद्वान् एवं लेखक थे । वादी हर्षनंदन महोपाध्याय समयसुन्दर के प्रमुख शिष्य एवं १७वीं शताब्दी के विशिष्ट विद्वान् थे। जयकीर्ति गद्य और पद्य रचना में समान रूप से निपुण थे।
राजसोम ने समयसुन्दर की प्रशस्ति में गीत लिखा है जो ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में 'महोपाध्याय समयसुन्दर गीतानि' शीर्षक के अन्तर्गत तीसरा गीत है। इसमें कुल १२ कड़ियाँ हैं । इसका आदि देखिये
नवखंड में जसुनाम पंडित गिरुआ हो, तर्क व्याकर्ण भण्या।
अर्थ किया अभिराम पद एकण राहो, आठ लाख आकरा । सम्राट अकबर ने समयसुन्दर की प्रशंसा की थी, कवि लिखता है
साधु बड़ो ए महन्त अकबरशाहे हो जेह बखाणीयो, समयसुन्दर भाग्यवंत पातिशाह,
यू ढोहो थायलि इम कह्यो रे । इस गीत में समयसुन्दर के साहित्यसर्जक रूप की भी स्तुति की गई है, यथा
परं उपगार निमित्त कीधी सगलो हो, धन-धन इम कहे ।
गीत छंद बहु वृत्ति कलियुग मांहे हो, जिणे शाको कियो। १. जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ. ६९५-९७ (प्रथम संस्करण)
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