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________________ उपोद्घात चेतन नाम से पुकारता है। उसी के साथ उसका मित्रभाव है। जब भ्रमवेश चेतन असंगत राह पर चलने लगता है तो जीव उसे सावधान करता है और माया-मोह छोड़ने का आह्वान करता है। बनारसीदास जी कहते हैं : - "चेतन जी तुम जागि विलोकहु, लागि रहे कहाँ माया के तोई।' इस प्रकार के अनेक पद इन्होंने लिखे हैं यथा'चेतन तोहि न नेक संभार ।' भैया भगवतीदास आदि कई कवियों के ऐसे उदाहरण दिये जा सकते हैं। वात्सल्य -सूर के बाद वात्सल्य रस का सरस उद्घाटन जैन हिन्दी साहित्य में ही मिलता है। पंचकल्याणकों में प्रथम कल्याणक-गर्भधारण एवं दूसरे कल्याणक जन्म का सम्बन्ध वात्सल्य से ही है, अतः तीर्थकरों के जीवन चरित पर आधारित नाना काव्य ग्रन्थों में वात्सल्य रस के वर्णन का उपयुक्त अवसर जैन कवियों को खूब मिला है । रूपचन्द कृत 'पंचकल्याणक', भधरदास कत, 'पावपुराण' आदि में इस रस की बड़ी मधुर अभिव्यक्ति मिलती है। इनमें वात्सल्य के आलम्बन तीर्थंकर और आश्रय उनके माँ-बाप तथा भक्तजन हैं। आलम्बनगत चेष्टायें, कार्य और उस समय होने वाले उत्सव उद्दीपन विभाव हैं। भट्टारक ज्ञानभूषण ने 'आदीश्वरफाग' में आदिनाथ की बालदशाओं का मनोहर चित्र खींचा है; यथा - बालक आदिनाथ के सोने की अवस्था का वर्णन देखिये 'आहे क्षिणि जोवइ क्षिणि सोवइ रोवइ लहिय लगार । आलि करइ कर मोडइ त्रोडइ नक्सर हार । १०३ ।' इसी प्रकार चलने का वर्णन देखिये : 'आहे घ्रण घ्रण घूघरी बाजइ हेम तणी विहुपाइ । तिम तिम नरपति हरषइ, अरु मरुदेवी माइ ॥ १०१।' माधुर्य-भगवद्विषयक अनुराग ही भक्ति के अन्तर्गत प्रेम का स्थायीभाव है । परानुरक्ति या गम्भीर अनुराग ही प्रेम है। नारियाँ प्रेम का प्रतीक होती हैं। इसी कारण भक्त भी कान्ताभाव से भगवान की आराधना करते हैं। कवि बनारसीदास ने अध्यात्म गीत में आत्मा को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002091
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1993
Total Pages704
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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